विदुर मैत्रेय संवाद vidura maitreya samvad

 विदुर जी का संशय एवं मैत्रेय जी के द्वारा उसका निवारण ।।
भागवत कथा प्रवचन 
विदुर मैत्रेय संवाद vidura maitreya samvad

ब्रह्मन् कथं भगवतः चिन्मात्रस्याविकारिणः । 
लीलया चापि युज्येरन्निगुर्णस्यगुणाः क्रियाः ।।
विदुर जी ने मैत्रेय जी से पूँछा भगवन् ! भगवान् तो चिन्मात्र हैं, चिद्रूप हैं, निर्गुण हैं, निर्विकार हैं, निष्क्रिय हैं, लीला से, अर्थात् विनोद से गुण और क्रिया का उनके साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ।
अर्भकवत लीलापि न संभवति ।
बच्चे के समान भी भगवान् की ये सृष्टि आदि की लीला संभव नहीं हो सकती।
क्रीडायामुद्यमोऽर्भस्य कामश्चिकीडिषान्यत: । 
स्वतस्तृप्तस्य च कथं निवृत्तस्य सदान्यत: ।।
बालक में तो कामना और दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है। इसी से वह खेलने के लिए प्रयत्न करता है किन्तु भगवान् तो स्वतः नित्यतृप्त हैं, पूर्णकाम आर सर्वदा असङ्ग हैं, अद्वितीय हैं, वे सृष्टि आदि करने के लिए क्यों प्रयत्न करेंगे ।
अस्राक्षीदभगवान् विश्वं गुणमय्याऽत्ममायया । 
तया संस्थापयत्येत्दभूयः प्रत्यपिधास्यति ।।

देशतः कालतो योऽसाववस्थातः स्वतोऽन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया कथम् ।।
जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्था से, अपने आप या किसी दसरे निमित्त से कभी लोप नहीं होता जो नित्य ज्ञान स्वरूप है, उनका माया के साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है ।
भगवानेक एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः । 
भगवान् ही समस्त शरीरों में आत्मरूप से अर्थात् जीव रूप से स्थित हैं फिर इन्हें दुर्भाग्य और क्लेशों की प्राप्ति कैसे हो सकती है । स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं -
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । 
अर्जुन ये शरीर क्षेत्र है और इसको जो जानता है उसको क्षेत्रज्ञ कहते हैं, वही जीव है । पुनः भगवान् कहते हैं, हे अर्जुन -
क्षेत्रज्ञ चापि माम् विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । 
सभी क्षेत्रों में, शरीरों में क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ।
एतस्मिन् मे मनो विद्वन् खिद्यतेऽज्ञान संकटे । 
तत्रः पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ।।
विदुर जी ने कहा हे भगवन् इस अज्ञान रूपी संकट में पड़कर मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे इस मन के मोह को कृपा करके दूर करें ।
स इत्थं चोदितः क्षत्रा तत्वजिज्ञासुना मुनिः । 
प्रत्याह भगवच्चित्तः स्मयन्निव गतस्मयः ।।
शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित्! तत्व जिज्ञासु विदुर जी के इस प्रश्न को सुन कर मुस्कुराते हुए, अहकार से रहित भगवदस्मरण करने हुए मैत्रेय जी बोले ।
सेयं भगवतो माया यन्नयेन विरूद्धयते । 
ईश्वरस्य विमुक्तस्य कार्पण्यमुतबन्धनम् ।।
विदुर जी ! जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्त है वही दीनता और बन्धन को प्राप्त हो यह बात युक्ति विरूद्ध तो अवश्य किन्तु वस्तुतः यही तो भगवान् की माया है जो युक्ति और तर्क से विरूद्ध हो उसको भी माया कर दिखाती है |
चतुस्कपर्दा युवती सुपेक्षा घृतप्रतीका वयुनानिवस्ते ।
भगवान् की माया की चार विशेषतायें हैं १. युवती इस माया का कार्य, यह जगत् शिथिल और जर्जर हो जाता है परन्तु यह सदा युवती बनी रहती है, २. सुपेक्षा यह बड़ी कुशल है, बड़े-बड़े ज्ञानियों को भी अपने वश में कर लेती हैं, ३. घृतप्रतीका इस माया के कार्य आरम्भ मे अच्छे लगते हैं पर परिणाम में नीरस हैं जैसे गुलाब का फूल आरम्भ में देखने में कितना सुन्दर लगता है, पर थोड़ी देर के बाद ही फैंक देते हैं, इसी प्रकार विवाह होने के बाद पति-पत्नी थोड़े दिन तो प्रेम से रहते हैं फिर आपस में लड़ने-झगड़ने लग जाते हैं, ४. वयुनानिवस्ते ज्ञान को यह माया ढकती है जैसे सभी जानते हैं कि मदिरा पान पतन का हेतु है तो भी मदिरा पान करते हैं ।
यदर्थविनामुष्य पुसआत्मविपर्ययः । 
प्रतीयत उपद्रष्टुः स्वाशिरश्छेनादिकः ।।
जिस प्रकार देखने वाला पुरूष स्वप्न में अपना सिर कटा हुआ देखता है, अपने को उड़ता हुआ देखता है, तैरता हुआ देखता है और स्वयं शय्या पर सो रहा है, जिस प्रकार स्वयं शय्या पर सोते हुए इनकी मिथ्या प्रतीति होती है उसी प्रकार यह जीव सच्चिदानन्द रूप होते हुए भी अज्ञान वश बन्धनादि क्लेश भोग रहा है । पञ्चदशीकार कहते हैं -
माहेश्वरी तु या माया तस्यानिर्माण शक्तिवत् । 
विद्यते मोहशक्तिश्च तं जीवं मोहयत्यसौ ।।
जैसे भगवान् की माया में सृष्टि आदि करने की शक्ति है, शरीरों के निर्माण करने की शक्ति है इसी प्रकार इन शरीरों में रहने वाले जीव को मोहित करने की भी शक्ति है, वही सभी जीवों को मोहित कर रही है । यदि कोई कहे कि ईश्वर में क्लेश आदि की प्रतीति क्यों नहीं होती तो इसका उत्तर यह है कि -
यथा जले चन्द्रमस: कम्पादिस्तत्कृतो गुणः ।
दृश्यतेऽसन्नपि द्रष्टुरात्मनो नात्मनो गुण: ।। 
जिस प्रकार जल में होने वाली कम्पनादि क्रिया जल में दीखने वाले चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब में न होने पर भी दिखाई देती है और आकाशस्थ चन्द्रमा में कम्पनादि की प्रतीति नहीं होती। उसी प्रकार जीव ईश्वर का प्रतिबिम्ब है, और ईश्वर बिम्ब ह प्रतिबिम्ब जीव में देह के सुख-दुःख आदि धर्म की मिथ्या प्रतीति होती यह मिथ्या प्रतीति कैसे निवृत्त हो ।
स वै निवृत्तिधर्मेण वासुदेवानुकम्पया । 
भगवद्भक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह ।।
निष्काम भाव से स्वधर्म का पालन करने पर भगवत् कृपा से प्राप्त हुए भक्तियोग के द्वारा यह प्रतीति निवृत्त हो जाती है । इसी बात को गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है -
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।
जो अनन्य भाव से मेरी शरण में आ जाते हैं वे इस माया से हो जाते हैं ।
यदेन्द्रियोपरामोऽथद्रष्ट्रात्मनि परे हरौ । 
विलीयन्ते तदा क्लेशा: संसुप्तस्येव कृत्स्नशः ।।
जिस समय इन्द्रियाँ विषयों से उपरत हो जाती है और मन में निश्चल भाव से श्री हरि के चरणो मे स्थिर हो जाता है उस समय गाढनि में सोये हुए मनुष्य के समान सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ।
असेषसंक्लेशशमं विधत्ते गुणानुवादश्रवणं मुरारे: । 
कुतःपुनस्तच्चरणाविन्दपरागसेवारतिरात्मलब्धा ।।
भगवान् श्री कृष्ण के गुणों का वर्णन तथा श्रवण सम्पूर्ण दु ख को समाप्त कर देता है, यदि हमारे हृदय में उनके प्रति स्वाभाविक प्रेम का उदय हो जाये तब तो कहना ही क्या है । __इसी प्रकार चित्जड़ ग्रन्थि भेदक संशय को सुनकर विदुर जी के सब संशय निवृत्त हो गए तत् पश्चात् विदुर जी बोले -
संन्छिन्नः संशयो मह्यम् सूक्तासिनस विभो ।
उभयत्रापि भगवन् मनो मे सम्प्रधावति ।। 
विदुर जी ने मैत्रेय जी से कहा भगवन् ! आपके युक्ति युक्त वचनों की तलवार से मेरा संशय दूर हो गया और ये बात समझ में आ गई कि जीव माया के अधीन होने के कारण ही दुःखी हो रहे हैं, माया से मोहित होने के कारण ही संसारी बने हुए हैं । उनके मोह का आधार केवल भगवान् की माया ही है और वह माया भगवान् के वश में है । इसलिए भगवान् स्वतन्त्र है और क्लेशादिक से रहित हैं ।
यश्चमूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः । 
तावुभौ सुखमधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ।।
इस संसार में दो प्रकार के लोग ही सुखी हैं प्रथम वे जो अत्यन्त मढ है द्वितीय जिन्होंने बुद्धि से अतीत अपने आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लिया है । बीच की श्रेणी के लोग तो दुःख ही भोगते हैं ।
विदुर जी कहते है भगवन् आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय हो - कि ये अनात्म पदार्थ नामरूपात्मक जगत् वस्तुत: है - की प्रतीति हो रही है।

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