आत्माका स्वरूप क्या है ?
aatma ka swaroop kya hai
स एवाधस्तात् स उपरिष्टात् स पश्चात् स पुरस्तात् स दक्षिणतः स उत्तरतः स एवेद सर्वमित्यथातोऽहङ्कारादेश एवाहमेवाधस्तादहमुपरिष्टादहं पश्चादहं पुरस्तादहं दक्षिणतोऽहमुत्तरतोऽहमेवेदर सर्वमिति ॥
(छान्दोग्य० ७ । २५ । १)
अब उसीमें अहङ्कारादेश किया जाता है—मैं ही नीचे | हूँ, मैं ही ऊपर हूँ, मैं ही पीछे हूँ, मैं ही आगे हूँ, मैं ही (शहिनी ओर हूँ, मैं ही बायीं ओर हूँ, और मैं ही यह सब हूँ।
" न पश्यो मृत्यु पश्यति न रोगं नोत दुःखताए सर्व ह पश्यः पश्यति सर्वमाप्नोति सर्वश इति ।
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः....."
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः....."
(छान्दोग्य० ७ । २६ । २)
आहारशुद्धि होनेपर अन्तःकरणकी शुद्धि होती है, अन्तःकरणकी शुद्धि होनेपर निश्चल स्मृति होती है तथा स्मृतिके प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण ग्रन्थियोंकी निवृत्ति हो जाती है । ( अज्ञानका नाश होकर आत्माकी प्राप्ति हो जाती है । )
आत्माका स्वरूप क्या है ?
aatma ka swaroop kya hai
उपदेश-
निवृत्तिः कर्मणः पापात्सततं पुण्यशीलता।
सद्वृत्तिः समुदाचारः श्रेय एतदनुत्तमम् ॥
पाप-कर्मसे दूर रहना, सदा पुण्यका संचय करते रहना, साधु पुरुषोंके बर्तावको अपनाना और उत्तम सदाचारका पालन करना—यह सर्वोत्तम श्रेयका साधन है ।
मानुष्यमसुखं प्राप्य यः सजति स मुह्यति ।
नालं स दुःखमोक्षाय सङ्गो वै दुःखलक्षणः ॥
जहाँ सुखका नाम भी नहीं है, ऐसे मानवशरीरको पाकर जो विषयोंमें आसक्त होता है, वह मोहमें डूब जाता है । विषयोंका संयोग दुःखरूप है, वह कभी दुःखसे छुटकारा नहीं दिला सकता।
जहाँ सुखका नाम भी नहीं है, ऐसे मानवशरीरको पाकर जो विषयोंमें आसक्त होता है, वह मोहमें डूब जाता है । विषयोंका संयोग दुःखरूप है, वह कभी दुःखसे छुटकारा नहीं दिला सकता।
( ना० पूर्व० ६० । ४४-४५)
नित्यं क्रोधात्तपो रक्षेच्छ्रियं रक्षेच्च मत्सरात् । विद्यां मानावमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः ॥
मनुष्यको चाहिये कि तपको क्रोधसे, सम्पत्तिको डाहसे, विद्याको मान-अपमानसे और अपनेको प्रमादसे बचावे ।
आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम् । आत्मज्ञानं परं ज्ञानं सत्यं हि परमं हितम् ॥
क्रूर स्वभावका परित्याग सबसे बड़ा धर्म है । क्षमा सबसे महान् बल है । आत्मज्ञान सर्वोत्तम ज्ञान है और सत्य ही सबसे बढ़कर हितका साधन है।़
(ना० पूर्व० ६० । ४८-४९ )
संचिन्वन्नेकमेवैनं कामानामवितृप्तकम् ।
व्याघ्रः पशुमिवासाद्य मृत्युरादाय गच्छति ॥ तथाप्युपायं सम्पश्येद् दुःखस्यास्य विमोक्षणे ॥
( ना० पू० ६१ । ४१)
जैसे वनमें नयी-नयी घासकी खोजमें विचरते हुए अतृप्त पशुको उसकी घातमें लगा हुआ व्याघ्र सहसा आकर दबोच लेता है, उसी प्रकार भोगोंमें लगे हुए अतृप्त मनुष्यको मृत्यु उठा ले जाती है।
इसलिये इस दुःखसे छुटकारा पानेका उपाय अवश्य सोचना चाहिये।
आत्माका स्वरूप क्या है ?
aatma ka swaroop kya hai