वैष्णव कौन है ?
bhagwan ke bhakt vaishnav kaun hai
प्रशान्तचित्ताः सर्वेषां सौम्याः कामजितेन्द्रियाः ॥
कर्मणा मनसा वाचा परद्रोहमनिच्छवः । दयामनसो नित्यं स्तेयहिंसापराङ्मुखाः ॥
गुणेषु परकार्येषु पक्षपातमुदान्विताः । सदाचारावदाताश्च परोत्सवनिजोत्सवाः ॥
पश्यन्तः सर्वभूतस्थं वासुदेवममत्सराः । दीनानुकम्पिनो नित्यं भृशं परहितैषिणः ॥
राजोपचारपूजायां लालनाः स्वकुमारवत् । कृष्णसर्पादिव भयं बाह्ये परिचरन्ति ये ॥
विषयेष्वविवेकानां या प्रीतिरुपजायते ।
वितन्वते हि तां प्रीतिं शतकोटिगुणां हरौ ॥
नित्यकर्तव्यताबुद्धया यजन्तः शङ्करादिकान् । विष्णुस्वरूपान् ध्यायन्ति भक्ताः पितृगणेष्वपि ॥
विष्णोरन्यन्न पश्यन्ति विष्णुं नान्यत् पृथग्गतम् । पार्थक्यं न च पार्थक्यं समष्टिव्यष्टिरूपिणः ॥
जगन्नाथ तवास्मीति दासस्त्वं चास्मि नो पृथक । सेव्यसेवकभावो हि भेदो नाथ प्रवर्तते ॥
अन्तर्यामी यदा देवः सर्वेषां हृदि संस्थिता ।
सेन्यो वा सेवको वापि खत्तो नान्योऽस्ति कश्चन ॥
इतिभावनयाकृतावधानाः
प्रणमन्तः सततं च कीर्तयन्तः । हरिमब्जजवन्धपादपद्म
प्रभजन्तस्तृणवज्जगज्जनेषु ||
उपकृतिकुशला जगत्स्वजर्स
परकुशलानि निजानि मन्यमानाः ।
अपि परपरिभावने दयाः
शिवमनसः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ॥
दृषदि परधने च लोष्टखण्डे
परवनितासु च कूटशाल्मलीषु ।
सखिरिपुसहजेषु बन्धुवर्गे
सममतयः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ॥
गुणगणसुमुखाः परस्य मर्म
च्छदनपराः परिणामसौख्यदा हि।
भगवति सततं प्रदत्तचित्ताः
प्रियवचनाः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ॥
स्फुटमधुरपदं हि कंसहन्तुः
कलुषमुषं शुभनाम चामनन्तः ।
जय जय परिघोषणां रटन्तः ।
किमुविभवाः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः॥
हरिचरणसरोजयुग्मचित्ता
जडिमधियः सुखदुःखसाम्यरूपाः । अपचितिचतुरा हरौ निजात्म
गतवचसः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ॥
रथचरणगदाब्जशङ्खमुद्रा
कृततिलकाङ्कितबाहुमूलमध्याः । मुररिपुचरणप्रणामधूली
धृतकवचाः खलु वैष्णवा जयन्ति ॥
मुरजिदपघनापकृष्टगन्धो
त्तमतुलसीदलमाल्यचन्दनैर्ये ।
वरयितुमिव मुक्तिमाप्तभूषा
कृतिरुचिराः खलु वैष्णवा जयन्ति ॥
विगलितमदमानशुद्धचित्ताः
प्रसभविनश्यदहंकृतिप्रशान्ताः । नरहारेममराप्तबन्धुमिष्ट्वा
क्षपितशुचः खलु वैष्णवा जयन्ति ॥
(स्क० वै० पु० मा० १० । ९६-११३
वैष्णव कौन है ?
bhagwan ke bhakt vaishnav kaun hai
जिनका चित्त व्यासे द्रवीभूत हो जाता है, जो चोरी और हिंसासे सदा ही मख मोड़े रहते हैं, जो सद्गुणोंके पक्षपाती हैं तथा दूसरोंके कार्यसाधनमें प्रसन्नतापूर्वक संलग्न रहते हैं |
सदाचारसे जिनका जीवन सदा उज्ज्वल निष्कलंक बना रहता है, जो दूसरोंके उत्सवको अपना उत्सव मानते हैं, सब प्राणियोंके भीतर भगवान् वासुदेवको विराजमान देखकर कभी किसीसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं करते |
दीनोंपर दया करना जिनका स्वभाव बन गया है और जो सदा परहित-साधनकी इच्छा रखते हैं, जो भगवान्की राजोचित उपचारोंसे पूजा करनेमें दत्तचित्त हो अपने पुत्रकी भाँति भगवान्का लाड़ लड़ाते हैं और बाह्य जगत्से वैसे ही भय मानकर अलग रहते हैं, जैसे काले सर्पसे |
अविवेकी मनुष्योंका विषयोंमें जैसा प्रेम होता है, उससे सौ कोटिगुनी अधिक प्रीतिका विस्तार वे भगवान् श्रीहरिके प्रति करते हैं |
नित्यकर्तव्यबुद्धिसे विष्णुस्वरूप शंकर आदि देवताओंका भक्तिपूर्वक पूजन-ध्यान करते हैं, पितरोंमें भगवान् विष्णुकी ही बुद्धिसे भक्तिभाव रखते हैं, भगवान् विष्णुसे भिन्न दूसरी किसी वस्तुको नहीं देखते तथा भगवान् विष्णुको भी विश्वसे सर्वथा भिन्न एवं पृथक् नहीं देखते ।
समष्टि और व्यष्टि सब भगवान्के ही स्वरूप है, भगवान् जगत्से भिन्न होकर भी भिन्न नहीं है, 'हे भगवान् जगन्नाथ ! मैं आपका दास हूँ, आपके स्वरूपमें भी मैं हूँ, आपसे पृथक् कदापि नहीं हूँ।
नाथ ! यदि भेद है तो इतना ही कि आप हमारे सेव्य हैं और मैं आपका सेवक हूँ। परन्तु जब आप भगवान् विष्णु अन्तर्यामीरूपसे सबके हृदयमें विराजमान हैं, तब सेव्य अथवा सेवक कोई भी आपसे भिन्न नहीं है।
इस भावनासे सदा सावधान रहकर जो ब्रह्माजीके द्वारा वन्दनीय युगल चरणारविन्दोवाले श्रीहरिको सदा प्रणाम करते, उनके नामोंका कीर्तन करते, उन्हींके भजनमें तत्पर रहते और संसारके लोगोंके समीप अपनेको तृणके समान तुच्छ मानकर विनयपूर्ण बर्ताव करते हैं |
जगत्में सब लोगोंका निरन्तर उपकार करनेके लिये जो कुशलताका परिचय देते हैं, दूसरोंके कुशलक्षेमको अपना ही कुशल-क्षेम मानते हैं |
दूसरोंका तिरस्कार देखकर उनके प्रति दयासे द्रवीभूत हो जाते हैं तथा सबके प्रति मनमें कल्याणकी भावना करते हैं, वे ही विष्णुभक्तके नामसे प्रसिद्ध हैं ।
जो पत्थर, परधन और मिट्टीके ढेलेमें, परायी स्त्री और कूटशाल्मली नामक नरकमें, मित्र, शत्रु, भाई तथा बन्धुवर्ग में समान बुद्धि रखनेवाले हैं, वे ही निश्चितरूपसे विष्णुभक्तके नामसे प्रसिद्ध हैं ।
जो दूसरोंकी गुणराशिसे प्रसन्न होते हैं और पराये मर्मको ढकनेका प्रयत्न करते हैं, परिणाममें सबको सुख देते हैं, भगवान्में सदा मन लगाये रहते हैं तथा प्रिय वचन बोलते हैं, वे ही वैष्णवके नामसे प्रसिद्ध हैं ।
जो भगवान्के पापहारी शुभनाम-सम्बन्धी मधुर पदोंका जप करते और जय-जयकी घोषणाके साथ भगवन्नामोंका कीर्तन करते हैं, वे अकिंचन महात्मा वैष्णवके रूपमें प्रसिद्ध हैं ।
जिनका चित्त श्रीहरिके चरणारविन्दोंमें निरन्तर लगा रहता है, जो प्रेमाधिक्यके कारण जडबुद्धि-सदृश बने रहते हैं, सुख और दुःख दोनों ही जिनके लिये समान हैं |
जो भगवान्की पूजामें चतुर हैं तथा अपने मन और विनययुक्त वाणीको भगवान्की सेवामें समर्पित कर चुके हैं, वे ही वैष्णवके नामसे प्रसिद्ध हैं ।
मद और अहंकार गल जानेके कारण जिनका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध हो गया है, अमरोंके विश्वसनीय बन्धु भगवान् नरहरिका यजन करके जो शोकरहित हो गये हैं, ऐसे वैष्णव निश्चय ही उच्चपदको प्राप्त होते हैं।
वैष्णव कौन है ?
bhagwan ke bhakt vaishnav kaun hai