परब्रह्मा को कैसे जानें- ब्रह्म और ब्रह्मवेत्ता parabrahma ko kaise jane

 परब्रह्मा को कैसे जानें 
 ब्रह्म और ब्रह्मवेत्ता 
parabrahma ko kaise jane
 परब्रह्मा को कैसे जानें    ब्रह्म और ब्रह्मवेत्ता   parabrahma ko kaise jane

  • महर्षि याज्ञवल्क्य जी के द्वारा मैत्रेयि, को ब्रह्मा को कैसे जाने इसका उपदेश-

स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति । न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति। 
श्रीयाज्ञवल्क्यजीने कहा-अरी मैत्रेयि ! यह निश्चय है कि पतिके प्रयोजनके लिये पति प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजनके लिये पति प्रिय होता है; स्त्रीके प्रयोजनके लिये स्त्री प्रिया नहीं होती, अपने ही प्रयोजनके लिये स्त्री प्रिया होती है |

न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति । न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति । 
पुत्रोंके प्रयोजनके लिये पुत्र प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजनके लिये पुत्र प्रिय होते हैं । धनके प्रयोजनके लिये धन प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजनके लिये धन प्रिय होता है।

न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति । न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति । न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया भवन्ति । 
 ब्राह्मणके प्रयोजनके लिये ब्राह्मण प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजनके लिये ब्राह्मण प्रिय होता है। क्षत्रियके प्रयोजनके लिये क्षत्रिय प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजनके लिये क्षत्रिय प्रिय होता है। लोकोंके प्रयोजनके लिये लोक प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजनके लिये लोक प्रिय होते हैं। 

न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति । न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति ।
देवताओंके प्रयोजनके लिये देवता प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजनके लिये देवता प्रिय होते हैं। प्राणियोंके प्रयोजनके लिये प्राणी प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजनके लिये प्राणी प्रिय होते हैं तथा सबके प्रयोजनके लिये सब प्रिय नहीं होते |

 न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति। आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम् ॥५॥
अपने ही प्रयोजनके लिये सब प्रिय होते हैं। अरी मैत्रेयि ! यह आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किये जानेयोग्य है । हे मैत्रेयि ! इस आत्माके ही दर्शन, श्रवण, मनन एवं विज्ञानसे इन सबका ज्ञान हो जाता है।
(बृहदारण्यकोपनिषद् अध्याय २ ब्राह्मण ४ ) 

यो वा एतदक्षरं गार्यविदित्वास्मॅिल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद् भवति यो वा एतदक्षरं गार्यविदित्वा स्माल्लोकात् प्रैति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माल्लोकात् प्रैति स ब्राह्मणः ॥ १०॥
(बृह० अ० ३ ब्रा० ८) 

हे गार्गि ! जो कोई इस लोकमें इस अक्षरको न जानकर हवन करता, यज्ञ करता और अनेकों सहस्र वर्षपर्यन्त तप करता है, उसका वह सब कर्म अन्तवान् ही होता है।

जो कोई भी इस अक्षरको बिना जाने इस लोकसे मरकर जाता है, वह कृपण ( दीन ) है और हे गार्गि ! जो इस अक्षरको जानकर इस लोकसे मरकर जाता है, वह ब्राह्मण है।

 तद् वा एतदक्षरं गार्यदृष्टं द्रष्टश्रुत श्रोत्रमतं मन्त्रविज्ञातं विज्ञातृ नान्यदतोऽस्ति द्रष्ट नान्यदतोऽस्ति श्रोतृ नान्यदतोऽस्ति मन्तृ नान्यदतोऽस्ति विज्ञानेतस्मिन्नु खल्वक्षरे गार्याकाश ओतश्च प्रोतश्चेति ॥ ११ ॥
( बृह० अ० ३ ब्रा० ८) 
हे गार्गि ! यह अक्षर स्वयं दृष्टिका विषय नहीं, किंतु द्रष्टा है। श्रवणका विषय नहीं, किंतु श्रोता है; मननका विषय नहीं, किंतु मन्ता है; स्वयं अविज्ञात रहकर दूसरोंका विज्ञाता है।

इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है, इससे भिन्न कोई श्रोता नहीं है, इससे भिन्न कोई मन्ता नहीं है। इससे भिन्न कोई विज्ञाता नहीं है। हे गार्गि ! निश्चय इस अक्षरमें ही आकाश ओत-प्रोत है।

स यो मनुष्याणा राद्धः समृद्धो भवत्यन्येषा मधिपतिः सर्वैर्मानुष्यकै गैः सम्पन्नतमः स मनुष्याणां परम आनन्दोऽथ ये शतं मनुष्याणामानन्दाः स एकः पितृणां जितलोका नामानन्दोऽथ ये शतं पितृणां जितलोकानामानन्दाः स एको गन्धर्वलोक आनन्दोऽथ ये शतं गन्धर्व लोक आनन्दाः स एकः कर्मदेवानामानन्दो ये कर्मणा देवत्वमभिसम्पद्यन्तेऽथ ये शतं कर्मदेवा नामानन्दाः स एक आजानदेवानामानन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतोऽथ ये शतमाजान देवानामानन्दा स एकः प्रजापतिलोक आनन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतोऽथ ये शतं प्रजापति लोक आनन्दाः स एको ब्रह्मलोक आनन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतोऽथैष एव परम आनन्द एष ब्रह्मलोकः सम्राडिति ॥ ३३॥
(बृह० अ० ४ ब्रा० ३ ) -

 वह जो मनुष्योंमें सब अङ्गोंसे पूर्ण, समृद्ध, दूसरोंका अधिपति और मनुष्यसम्बन्धी सम्पूर्ण भोग-सामग्रियोंद्वारा सबसे अधिक सम्पन्न होता है, वह मनुष्योंका परम आनन्द है। अब जो मनुष्योंके सौ आनन्द हैं, वह पितृलोकको जीतनेवाले पितृगणका एक आनन्द है ।

और जो पितृलोकको जीतनेवाले पितरोंके सौ आनन्द हैं, वह गन्धर्वलोकका एक आनन्द है तथा जो गन्धर्वलोकके सौ आनन्द हैं, वह कर्मदेवोंका, जो कि कर्मके द्वारा देवत्वको प्राप्त होते हैं, एक आनन्द है।

जो कर्मदेवोंके सौ आनन्द हैं, वह आजान ( जन्म-सिद्ध ) देवोंका एक आनन्द है और जो निष्पाप, निष्काम श्रोत्रिय है ( उसका भी वह आनन्द है)। जो आजानदेवोंके सौ आनन्द हैं, वह प्रजापति लोकका एक आनन्द है और जो निष्पाप, निष्काम श्रोत्रिय है, उसका भी वह आनन्द है।

जो प्रजापतिलोकके सौ आनन्द है, वह ब्रह्मलोकका एक आनन्द है और जो निष्पाप, निष्काम श्रोत्रिय है, उसका भी वह आनन्द है तथा यही परम आनन्द है । हे सम्राट ! यह ब्रह्मलोक है।

योऽकामो निष्काम आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति ॥ ६ ॥
( बृह० अ० ४ ब्रा० ४ ) 
जो अकाम, निष्काम, आप्तकाम और आत्मकाम होता है, उसके प्राणोंका उत्क्रमण नहीं होता, वह ब्रह्म ही रहकर । ब्रह्मको प्राप्त होता है।

एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य म वर्धते कर्मणा नो कनीयान् । तस्यैव स्यात् पदवित्तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेनेति । तस्मादेवंविच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूतात्मन्येवात्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति नैनं पाप्मा तरति सर्व पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तपति सर्व पाप्मानं तपति विपापो विरजोऽविचिकित्सो ब्राह्मणो भवत्येष ब्रह्मलोकः सम्राडेनं प्रापितोऽसीति ॥ २३॥
(बृह० अ० ४ ब्रा० ४ ) 
यह ब्रह्मवेत्ताकी नित्य महिमा है, जो कर्मसे न तो बढ़ती है और न घटती ही है । उस महिमाके ही स्वरूपको जाननेवाला होना चाहिये, उसे जानकर पापकर्मसे लिप्त नहीं होता।

अतः इस प्रकार जाननेवाला शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु और समाहित होकर आत्मामें ही आत्माको देखता है, सभीको आत्मा देखता है।

 उसे (पुण्य-पापरूप) पापकी प्राप्ति नहीं होती, यह सम्पूर्ण पापोंको पार कर जाता है। इसे पाप ताप नहीं पहुँचाता, यह सारे पापोंको संतप्त करता है । यह पापरहित, निष्काम, निःसंशय ब्राह्मण हो जाता है । हे सम्राट ! यह ब्रह्मलोक है, तुम्हें इसकी प्राप्ति करा दी गयी है।

यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति तदितर इतरं जिघ्रति तदितर इतररसयते तदितर इतरमभिवदति तदितर इतर शृणोति तदितर इतरं मनुते तदितर इतरण स्पृशति तदितर इतरं विजानाति यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत् केन कं पश्येत् तत् केन कं जिघ्रत् तत् केन करसयेत् तत् केन कमभिवदेत् तत् केन करशृणुयात् तत् केन के मन्वीत तत् केन करस्पृशेत् तत् केन के विजानीयाद् येनेद सर्व विजानाति तं केन विजानीयात् स एष नेति नेत्यात्मागृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यति विज्ञातारमरे केन विजानीयादित्युक्तानुशासनासि मैत्रेय्येतावदरे खल्वमृतत्वमिति होक्त्वा याज्ञवल्क्यो विजहार ॥ १५॥
(बृह० अ० ४ ब्रा० ५) 

जहाँ ( अविद्यावस्थामें ) द्वैत-सा होता है, वही अन्य अन्यको देखता है, अन्य अन्यको सूंघता है, अन्य अन्यका रसास्वादन करता है, अन्य अन्यका अभिवादन करता है, अन्य अन्यको सुनता है, अन्य अन्यसे बोलता है, अन्य अन्यका स्पर्श करता है और अन्य अन्यको विशेष रूपसे जानता है।

किंतु जहाँ इसके लिये सब आत्मा ही हो गया है, वहाँ किसके द्वारा किसे देखे, किसके द्वारा किसे सूंघे, किसके द्वारा किसका रसास्वादन करे, किसके द्वारा किससे बोले, किसके द्वारा किसे सुने, किसके द्वारा किसका मनन करे, किसके द्वारा किसका स्पर्श करे और किसके द्वारा किसे जाने ?

जिसके द्वारा पुरुष इस सबको जानता है, उसे किस साधनसे जाने ? वह यह 'नेति-नेति' इस प्रकार निर्देश किया गया आत्मा अगृह्य है—उसका ग्रहण नहीं किया जाता, अशीर्य है--उसका विनाश नहीं होता, असङ्ग है—आसक्त नहीं होता, अबद्ध है—वह व्यथित और क्षीण नहीं होता ।

हे मैत्रेयि ! विज्ञाताको किसके द्वारा जाने ? इस प्रकार तुझे उपदेश कर दिया गया । अरी मैत्रेयि ! निश्चय जान, इतना ही अमृतत्व है। यों कहकर याज्ञवल्क्यजी परिव्राजक ( संन्यासी) हो गये।

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