तैत्तिरीयोपनिषद् के अनमोल उपदेश taittiriya upanishad quotes updesh

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 तैत्तिरीयोपनिषद् के अनमोल उपदेश 
taittiriya upanishad quotes updesh
 तैत्तिरीयोपनिषद् के अनमोल उपदेश   taittiriya upanishad quotes updesh

  • आचार्य श्री का अपने ब्रह्मचारियों को उपदेश-

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्म चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् ।
(तैत्तिरीय० १ । ११ । १) 

  • वेदका भलीभाँति अध्ययन कराकर आचार्य अपने आश्रममें रहनेवाले ब्रह्मचारी विद्यार्थीको शिक्षा देते हैं- 

तुम सत्य बोलो । धर्मका आचरण करो । स्वाध्यायसे कभी न चूको । आचार्यके लिये दक्षिणाके रूपमें वाञ्छित धन लाकर दो, फिर उनकी आज्ञासे गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करके संतानपरम्पराको चालू रक्खो, उसका उच्छेद न करना ।

तुमको सत्यसे कभी नहीं डिगना चाहिये । धर्मसे नहीं डिगना चाहिये। शुभ कर्मोंसे कभी नहीं चूकना चाहिये । उन्नतिके साधनोंसे कभी नहीं चूकना चाहिये । वेदोंके पढ़ने और पढ़ानेमें कभी भूल नहीं करनी चाहिये । देवकार्यसे और पितृकार्यसे कभी नहीं चूकना चाहिये।

मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव। यान्यनवानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माक सुचरितानि । तानि स्वयोपास्यानि नो इतराणि । ये के चास्मच्छ्रेया५सो ब्राह्मणाः तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम् । श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयादेयम् । श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् । भिया देयम् । संविदा देयम्।
(तैत्तिरीय० १ । ११ । २)

तुम मातामें देवबुद्धि करनेवाले बनो । पिताको देवरूप समझनेवाले होओ । आचार्यको देवरूप समझनेवाले बनो । अतिथिको देवतुल्य समझने वाले होओ।

जो-जो निर्दोष कर्म हैं, उन्हींका तुम्हें सेवन करना चाहिये । दूसरे दोषयुक्त कर्मोंका कभी आचरण नहीं करना चाहिये । हमारे आचरणों से भी जो-जो अच्छे आचरण हैं, उनका ही तुमको सेवन करना चाहिये । दूसरेका कभी नहीं ।

जो कोई भी हमसे श्रेष्ठ गुरुजन एवं ब्राह्मण आयें, उनको तुम्हें आसन-दान आदिके द्वारा सेवा करके विश्राम देना चाहिये । श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिये। बिना श्रद्धाके नहीं देना चाहिये ।

आर्थिक स्थितिके अनुसार देना चाहिये । लजासे देना चाहिये । भयसे भी देना चाहिये और जो कुछ भी दिया जाय, वह सब विवेकपूर्वक देना चाहिये।

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति।
(तैत्तिरीय० २। १ । २) 

ब्रह्म सत्य, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है । जो मनुष्य परम विशुद्ध आकाशमें रहते हुए भी प्राणियोंके हृदयरूप गुफामें छिपे हुए उस ब्रह्मको जानता है, वह उस विज्ञानस्वरूप ब्रह्मके साथ समस्त भोगोंका अनुभव करता है ।  इस प्रकार यह ऋचा है।

यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्द ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चनेति। 
(तैत्तिरीय० २।९।१)

मनके सहित वाणी आदि समस्त इन्द्रियाँ जहाँसे उसे न पाकर लौट आती हैं, उस ब्रह्मके आनन्दको जाननेवाला महापुरुष किसीसे भी भय नहीं करता ।
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