ऋषि कुमार नचिकेता और यमराज के मध्य संवाद
rishi kumar nachiketa or yamraj ka samvad
- आत्मज्ञान
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेत
स्तौ सम्परीत्य विविनक्तिधीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते
प्रेयो मन्दो योगक्षेमावणीते ॥
(कठ० १ । २ । २)
श्रेय और प्रेय-ये दोनों ही मनुष्यके सामने आते हैं । बद्धिमान् मनुष्य उन दोनोंके स्वरूपपर भलीभाँति विचार करके उनको पृथक पृथक समझ लेता है और वह श्रेष्ठबुद्धि मनुष्य परम कल्याणके साधनको ही भोग-साधनकी अपेक्षा श्रेष्ठ समझकर ग्रहण करता है।
परंतु मन्दबुद्धिवाला मनुष्य लौकिक योगक्षेमकी इच्छासे भोगोंके साधनरूप प्रेयको अपनाता है।
स वं प्रियान् प्रियरूपारश्च कामा
नभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यनाक्षीः |
नैतासृङ्का वित्तमयीमवाप्तो
यस्यां मजन्ति बहवो मनुष्याः ॥
- (कठ० १ । २ । ३)
हे नचिकेता ! उन्हीं मनुष्योंमें तुम ऐसे निःस्पृह हो कि प्रिय लगनेवाले और अत्यन्त सुन्दर रूपवाले इस लोक और परलोकके समस्त भोगोंको भलीभाँति सोच-समझकर तुमने छोड़ दिया ।
इस सम्पत्तिरूप शृङ्खलाको तुम नहीं प्राप्त हुए इसके बन्धनमें नहीं फँसे, जिसमें बहुत-से मनुष्य फँस जाते हैं।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः
स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः ।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा
अन्वेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥
(कठ० १ । २ । ५)
न जायते म्रियते वा विपश्चि
नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
(कठ० १ । २ । १८)
नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा न तो जन्मता है और न मरता ही है । यह न तो स्वयं किसीसे हुआ है न इससे कोई भी हुआ है-अर्थात् यह न तो किसीका कार्य है और न कारण ही है ।
यह अजन्मा, नित्य, सदा एकरस रहनेवाला और पुरातन है अर्थात् क्षय और वृद्धिसे रहित है । शरीरके नाश किये जानेपर भी इसका नाश नहीं किया जा सकता।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
__न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूस्वाम् ॥
( कठ० १ । २ । २३)
यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचनसे, न बुद्धिसे और न बहुत सुननेसे ही प्राप्त हो सकता है। जिसको यह स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि यह परमात्मा उसके लिये अपने यथार्थ स्वरूपको प्रकट कर देता है।
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः । नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥
( कठ० १ । २ । २४)
सूक्ष्म बुद्धिके द्वारा भी इस परमात्माको न तो वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो बुरे आचरणोंसे निवृत्त नहीं हुआ है; न वह प्राप्त कर सकता है, जो अशान्त है; न वह कि जिसके मन, इन्द्रियाँ संयत नहीं हैं और न वही प्राप्त करता है, जिसका मन शान्त नहीं है।
आत्मान रथिनं विद्धि शरीर रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥
( कठ० १ । ३ । ३)
हे नचिकेता ! तुम जीवात्माको तो रथका स्वामी उसमें बैठकर चलनेवाला समझो और शरीरको ही रथ समझो तथा बुद्धिको सारथि रथको चलाने वाला समझो और मनको ही लगाम समझो।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषया ँस्तेषु गोचरान् । आस्मेन्द्रियमनोयुक्तंभोक्तत्याहुर्मनीषिणः ॥
(कठ० १ । ३।४)
ज्ञानीजन इस रूपकमें इन्द्रियोंको घोड़े बतलाते हैं और विषयोंको उन घोड़ोंके विचरनेका मार्ग बतलाते हैं तथा शरीर, इन्द्रिय और मन--इन सबके साथ रहनेवाला जीवात्मा ही
भोक्ता है--यों कहते हैं।
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा । तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥
( कठ० १ । ३ । ५)
जो सदा विवेकहीन बुद्धिवाला और अवशीभूत-चञ्चलमनसे युक्त रहता है, उसकी इन्द्रियाँ असावधान सारथिके दुष्ट घोड़ोंकी भाँति स्वतन्त्र हो जाती हैं ।
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा । तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥
(कठ० १ । ३ । ६)
परंतु जो सदा विवेकयुक्त बुद्धिवाला और वशमें किये हुए मनसे सम्पन्न रहता है, उसकी इन्द्रियाँ सावधान सारथिके अच्छे घोड़ोंकी भाँति वशमें रहती हैं ।
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाशुचिः ।
न स तत्पदमाप्नोति स सारं चाधिगच्छति ॥
(कठ० १ । ३ । ७)
जो कोई सदा विवेकहीन बुद्धिवाला, असंयतचित्त और अपवित्र रहता है, वह उस परमपदको नहीं पा सकता, अपितु बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्रमें ही भटकता रहता है।
यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदा शुचिः ।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥
(कठ० १ । ३ । ८ )
परंतु जो सदा विवेकशील बुद्धिसे युक्त, संयतचित्त और पवित्र रहता है, वह तो उस परमपदको प्राप्त कर लेता है, जहाँसे लौटकर पुनः जन्म नहीं लेता।
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान् नरः ।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद् विष्णोः परमं पदम् ॥
(कठ०१।३।९)
जो कोई मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथिसे सम्पन्न और मनरूप लगामको वशमें रखनेवाला है, वह संसारमार्गके पार पहुँचकर परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान्के उस सुप्रसिद्ध परमपदको प्राप्त हो जाता है ।।
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोरमा न प्रकाशते ।
दृश्यते स्वप्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥
(कठ० १ । ३ । १२)
यह सबका आत्मरूप परमपुरुष समस्त प्राणियोंमें रहता हुआ भी मायाके परदेमें छिपा रहनेके कारण सबके प्रत्यक्ष नहीं होता । केवल सूक्ष्म तत्त्वोंको समझनेवाले पुरुषोंद्वारा ___ ही अति सूक्ष्म तीक्ष्ण बुद्धिसे देखा जाता है ।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥
(कठ० १ । ३ । १४ )
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥
(कठ० २।२।९)
जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्डमें प्रविष्ट एक ही अग्नि नाना रूपोंमें उनके समान रूपवाला ही हो रहा है, वैसे ही समस्त प्राणियोंका अन्तरात्मा परब्रह्म एक होते हुए भी नाना रूपोंमें उन्हींके जैसे रूपवाला हो रहा है और उनके बाहर भी है।
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥
(कठ२ । २ । १० )
जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्डमें प्रविष्ट एक ही वायु नाना रूपोंमें उनके समान रूपवाला ही हो रहा है, वैसे ही सब प्राणियोंका अन्तरात्मा परब्रह्म एक होते हुए भी नाना रूपोंमें उन्हींके-जैसे रूपवाला हो रहा है और उनके बाहर भी है ।
सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षु
न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ॥
( कठ० २ । २ । ११)
जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्डका प्रकाशक सूर्य देवता लोगोंकी आँखोंसे होनेवाले बाहरके दोषोंसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सब प्राणियोंका अन्तरात्मा एक परब्रह्म परमात्मा लोगोंके दुःखोंसे लिप्त नहीं होता। क्योंकि सबमें रहता हुआ भी वह सबसे अलग है।
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा
एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा
स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥
(कठ० २ । २ । १२ ) __
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनाना
मेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा
स्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥
( कठ० २ । २ । १३)
जो नित्योंका भी नित्य है, चेतनोंका भी चेतन है और अकेला ही इन अनेक जीवोंकी कामनाओंका विधान करता है, उस अपने अंदर रहनेवाले पुरुषोत्तमको जो ज्ञानी निरन्तर देखते रहते हैं, उन्हींको सदा अटल रहनेवाली शान्ति प्राप्त होती है, दूसरोंको नहीं।
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।
अथ मोऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥
(कठ०२ । ३ । १४)
इस साधकके हृदयमें स्थित जो कामनाएँ हैं, वे सब-की सब जब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और वह यहीं ब्रह्मका भलीभाँति अनुभव कर लेता है।
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