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ऋषियों के अनमोल उपदेस rishiyon ke pavan updesh

bhagwat katha sikhe

ऋषियों के अनमोल उपदेस rishiyon ke pavan updesh

 ऋषियों के अनमोल  उपदेस rishiyon ke pavan updesh
 ऋषियों के अनमोल  उपदेस 
rishiyon ke pavan updesh
 ऋषियों के अनमोल  उपदेस   rishiyon ke pavan updesh

  •  महर्षि जमदग्नि उपदेस 

प्रतिग्रहसमर्थोऽपि नादत्ते यः प्रतिग्रहम् । 
ये लोका दानशीलानां स तानाप्नोति शाश्वतान् ॥ 
जो दान लेनेकी शक्ति रखते हुए भी उसे नहीं ग्रहण करता, वह दानी पुरुषोंको मिलनेवाले सनातन लोकोको प्राप्त होता है ।

योऽर्थान्प्राप्य नृपाद्विप्रः शोचितव्यो महर्षिभिः ।
 न स पश्यति मूढात्मा नरके यातनाभयम् ॥ 
जो ब्राह्मण राजासे धन लेता है, वह महर्षियों द्वारा शोक करनेके योग्य है; उस मूर्खको नरक यातनाका भय नहीं दिखायी देता ।

प्रतिग्रहसमर्थोऽपि न प्रसज्येप्रतिग्रहे । 
प्रतिग्रहेण विप्राणां ब्रह्मतेजश्च हीयते ॥

प्रतिग्रह लेनेमें समर्थ होकर भी उसमें आसक्त नहीं होना चाहिये। क्योंकि प्रतिग्रहसे ब्राह्मणोंका ब्रह्मतेज नष्ट हो जाता है।
(पद्मपुराण, सृष्टि०१९ । २६६--२६८) 

नित्योत्सवस्तदा तेषां नित्यश्रीनित्यमङ्गलम् ॥ 
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनं हरिः।
(पाण्डवगीता ४५) 
जबसे जिनके हृदयमें मङ्गलधाम हरि बसने लगते है। तभीसे उनके लिये नित्य उत्सव है, नित्य लक्ष्मी और नित्य मङ्गल है।
  • महर्षि पुलस्त्य उपदेस

परं ब्रह्म परं धाम योऽसौ ब्रह्म तथा परम् । 
तमाराध्य हरिं याति मुक्तिमप्यतिदुर्लभाम् ॥
(विष्णुपु० १ । ११ । ४६ ) 
जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप हैं, उन हरिकी आराधना करनेसे मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपदको भी प्राप्त कर लेता है।

  • तीर्थसेवनका फल किसको मिलता है ? 

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम् ।
विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥

प्रतिग्रहादुपावृत्तः संतुष्टो येन केनचित् ।
अहंकारनिवृत्तश्च स तीर्थफलमश्नुते ॥
  •   महर्षि पुलह  उपदेस

ऐन्द्रमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम् । 
प्राप यज्ञपतिं विष्णुं तमाराधय सुव्रत ॥
(विष्णु० १ । ११ । ४७ )
हे सुव्रत ! जिन जगत्पतिकी आराधनासे इन्द्रने अत्युत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया है, तू उन यज्ञपति भगवान् विष्णुकी आराधना कर।

अक्रोधनश्च राजेन्द्र सत्यशीलो दृढवतः । 
आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्नुते ॥
(पद्म० सृष्टि० १९ । ८–१० ) 
जिसके हाथ, पैर और मन संयममें रहते हैं तथा जो विद्वान् , तपस्वी और कीर्तिमान होता है, वही तीर्थ सेवनका फल प्राप्त करता है । जो प्रतिग्रहसे दूर रहता है--किसीका दिया हुआ दान नहीं लेता, प्रारब्धवश जो कुछ प्राप्त हो जाय उसीसे संतुष्ट रहता है तथा जिसका अहङ्कार दूर हो गया है, ऐसे मनुष्यको ही तीर्थ-सेवनका पूरा फल मिलता है । राजेन्द्र ! जो स्वभावतः क्रोधहीन, सत्यवादी, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मभाव रखनेवाला है, उसे तीर्थ सेवनका फल प्राप्त होता है।
  • महर्षि मरीचि उपदेस

अनाराधितगोविन्दैनरैः स्थानं नृपात्मज । 
न हि सम्प्राप्यते श्रेष्ठं तस्मादाराधयाच्युतम् ॥
(विष्णुपुराण १ । ११ । ४३ ) 
हे राजपुत्र ! बिना गोविन्दकी आराधना किये मनुष्योंको वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता; अतः तू श्रीअच्युतकी आराधना कर।

 ऋषियों के अनमोल  उपदेस 

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