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उपयोगी ज्ञान की बातें upyogi kam ki baatein

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उपयोगी ज्ञान की बातें upyogi kam ki baatein

उपयोगी ज्ञान की बातें upyogi kam ki baatein
 उपयोगी ज्ञान की बातें 
upyogi kam ki baatein
 उपयोगी ज्ञान की बातें   upyogi kam ki baatein
क्या करने योग्य है ? और क्या धारण करने योग्य है ?
 दीर्घकालतक क्या करे ? 
चिरेण मित्रं बध्नीयाच्चिरेण च कृतं त्यजेत् । 
चिरेण हि कृतं मित्रं चिरंधारणमर्हति ॥ 
चिरकालतक परीक्षा करके कोई किसीको मित्र बनाये, और बनाये हुए मित्रका जल्दी त्याग न करे; चिरकालतक सोचकर बनाये हुए मित्रको दीर्घकालतक धारण किये रहना उचित है । 

रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि । 
अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते ॥ 
राग, दर्प, अभिमान, द्रोह, पापकर्म तथा अप्रिय कर्तव्यमें चिरकारी-विलम्ब करनेवाला प्रशंसाका पात्र है । 

बन्धूनां सुहृदां चैव भृत्यानां स्त्रीजनस्य च । 
अव्यक्तेष्वपराधेषु चिरकारी प्रशस्यते ॥
बन्धु, सुहृद्, भृत्य और स्त्रीवर्गके अव्यक्त अपराधोंमें जल्दी कोई दण्ड न देकर देरतक विचार करनेवाला पुरुष प्रशंसनीय माना गया है ।
( महा० शा० २६६ । ६९-७१ ) 

चिरं वृद्धानुपासीत चिरमन्वास्य पूजयेत् । 
चिरं धर्मान्निषेवेत कुर्याच्चान्वेषणं चिरम् ॥ 
चिरकालतक धर्मोका सेवन करे ।किसी बातकी खोजका कार्य चिरकालतक करता रहे । विद्वान पुरुषोंका संग अधिक कालतक करे। 

चिरमन्वास्य विदुषश्चिरशिष्टानुपास्य च । 
चिरं विनीय चात्मानं चिरं यात्यनवज्ञताम् ॥ 
शिष्टपुरुषोंका सेवन दीर्घकालतक करे । अपनेको चिरकालतक विनयशील बनाये रखनेवाला पुरुष दीर्घकालतक आदरका पात्र बना रहता है। 

ब्रुवतश्च परस्यापि वाक्यं धर्मोपसंहितम् । 
चिरं पृष्टोऽपि च ब्रूयाच्चिरं न परिमप्यते ॥
दूसरा कोई भी यदि धर्मयुक्त वचन कहे तो उसे देरतक सरेगौतम और यदि कोई प्रश्न करे तो उसपर देरतक विचार करके उसका उत्तर दे । ऐसा करनेसे मनुष्य चिरकालतक संतापका भागी नहीं बनता।
(महाभारत, शा० २६६ । ७५-७७) 

 उपयोगी ज्ञान की बातें 
upyogi kam ki baatein

( संतोष )
सर्वस्त्विन्द्रियलोभन संकटान्यवगाहते ॥ 
इन्द्रियोंके लोभग्रस्त होनेसे सभी मनुष्य सङ्कटमें पड़ जाते हैं ।
सर्वत्र सम्पदस्तस्य संतुष्टं यस्य मानसम् । 
उपानद्गूढपादस्य ननु चर्मावृतेव भूः ||
जिसके चित्तमें संतोष है, उसके लिये सर्वत्र धनसम्पत्ति भरी हुई है। जिसके पैर जूतेमें हैं, उसके लिये सारी पृथ्वी मानो चमड़ेसे ढकी है। 

संतोषामृततृप्तानां यत् सुखं शान्तचेतसाम् । 
कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥
संतोषरूपी अमृतसे तृप्त एवं शान्त चित्तवाले पुरुषोंको जो सुख प्राप्त है, वह धनके लोभसे इधर-उधर दौड़नेवाले लोगोंको कहाँसे प्राप्त हो सकता है । 

असंतोषः परं दुःखं संतोषः परमं सुखम् ।
सुखार्थी पुरुषस्तस्मात् संतुष्टः सततं भवेत् ॥
असंतोष ही सबसे बढ़कर दुःख है और संतोष ही सबसे बड़ा सुख है; अतः सुख चाहनेवाले पुरुषको सदा संतुष्ट  रहना चाहिये।
(पद्म० सृष्टि० १९ । २५८--२६१) 

 उपयोगी ज्ञान की बातें 
upyogi kam ki baatein

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