[वैदिक वाणी ]
(प्रेषक-श्रीश्रीपाद दामोदर सातवलेकर )
१ सुवीरं स्वपत्यं प्रशस्तं रयिं धिया नः दाः-उत्तम वीर-भावसे युक्त, उत्तम पुत्र-पौत्रोंसे युक्त, प्रशंसायोग्य धन उत्तम बुद्धिके साथ हमें दो।२ यातुमावान् यावा यं रयिं न तरति- हिंसक डाकू जिस धनको लूट नहीं सकता (ऐसा धन हमें दे दो।)
३ विश्वा अरातीः तपोभिः अपदह-सब शत्रुओंको अपने तेजोंसे जला दो ( दूर करो।)
४ अमीवां प्रचातयस्व-रोगको भलीभाँति नष्ट कर दो।
५ इह सुमनाः स्याः–यहाँ उत्तम मनसे युक्त होकर रहो।
६ प्रशस्तां धियं पनयन्त-प्रशस्त विशाल बुद्धिकी प्रशंसा सब करते हैं।
७ विश्वा अदेवी माया अभिसन्तु-सब प्रकारके राक्षसी कपट-जाल छिन्न-भिन्न हो जाय।
८ अररुषः अघायोः धूर्तेः पाहि-कृपण, पापाभिलाषी तथा हिंसकसे हमारा रक्षण कर ।
९ अमतये नः मा परादा:-निर्बुद्धिता हमें प्राप्त न हो ।
१० सूरिभ्यः बृहन्तं रयिम् आवह-ज्ञानियोंको बहुत धन दो।
११ आयुषा अविक्षितासः सुवीरा: मदेम-आयुसे क्षीण न होकर तथा उत्तम वीर बनकर सानन्द-प्रसन्न रहेंगे ।( ऋग्वेद ७ । १)
१२ सुक्रतवः शुचयः धियंधा:-उत्तम कर्म करनेवाले, पवित्र और बुद्धिमान् बनो।
१२ सुक्रतवः शुचयः धियंधा:-उत्तम कर्म करनेवाले, पवित्र और बुद्धिमान् बनो।
१३ ईडेन्युम् असुरं सुदक्षं सत्यवाचं संमहेम-प्रशंसनीय बलवान्, दक्ष, सत्य बोलनेवालेकी हम स्तुति करते हैं ।(ऋग्वेद ७ । २)
१४ ऋतावा तपुर्मूर्द्धा घृतान्नः पावकः-सत्य-पालन करनेवाला, तेजस्वी मुखवाला, घी खानेवाला और पवित्रता करनेवाला मनुष्य बने ।
१४ ऋतावा तपुर्मूर्द्धा घृतान्नः पावकः-सत्य-पालन करनेवाला, तेजस्वी मुखवाला, घी खानेवाला और पवित्रता करनेवाला मनुष्य बने ।
१५ सुचेतसं क्रतुं वतेम-उत्तम शुद्ध बुद्धिसे हम कर्तव्य करें।(ऋग्वेद ७ । ३)
१६ तरुणः गृत्सः अस्तु- तरुण ज्ञानी हो ।
१७ अनीके संसदि मर्तासः पौरुषेयीं गृभं न्युवोच- सैनिक वीरोंकी सभामें बैठे वीर युद्धमें मरनेके लिये तैयार होकर पौरुषकी ही बातें करते हैं।
१८ प्रचेता अमृतः कविः अकविषु मर्तेषु निधायि- विशेष ज्ञानी, अमरत्व प्राप्त करनेवाला विद्वान् अज्ञानी मनुष्योंमें जाकर बैठे (और उनको ज्ञान दे ।) ( ऋग्वेद ७ । ४ )
१९ आर्याय ज्योतिः जनयन्–आर्योंके लिये प्रकाश किया है।
२० दस्यून ओकसः आजः-चोरोंको घरोंसे भगा दो।
२१ धुमतीम् इषम् अस्मे आ ईरयस्त्र-तेजस्वी अन्न हमें दे दो।(ऋग्वेद ७ । ५)
२२ दारुं वन्दे- शत्रुके विदारण करनेवाले वीरको मैं प्रणाम करता हूँ।
२२ दारुं वन्दे- शत्रुके विदारण करनेवाले वीरको मैं प्रणाम करता हूँ।
२३ अद्रेः धासिं भानुं कविं शं राज्यं पुरन्दरस्य महानि व्रतानि गीर्भिः आ विवासे-कीलों के धारणकर्ता, तेजस्वी, ज्ञानी, सुखदायी, राज्यशासक, शत्रुके नगरोंका भेद करनेवाले, बड़े पुरुषार्थी वीरके शौर्यपूर्ण कार्योंकी मैं प्रशंसा करता हूँ।
२४ अक्रतून ग्रथिनः मृध्रवाचः, पणीन् अश्रद्धान्, अयज्ञान् दस्यून् निवियाय -सत्कर्म न करनेवाले, वृथाभाषी, हिंसावादी, सूद लेनेवाले, श्रद्धाहीन, यज्ञ न करनेवाले डाकुओंको दूर करो।
२५ वस्वः ईशानं अनानतं पृतन्यून् दमयन्तं गृणीषे- धनके स्वामी, शत्रुके आगे न झुकनेवाल सेना-संचालन करनेवाले, शत्रुका दमन करनेवाले वीरकी प्रशंसा करो।
२६ वधस्नैः देह्यः अनमयत्-शस्त्रोंसे गुण्डोंको नम्रकरना योग्य है। (ऋग्वेद ७१६)
२६ वधस्नैः देह्यः अनमयत्-शस्त्रोंसे गुण्डोंको नम्रकरना योग्य है। (ऋग्वेद ७१६)
२७ मानुषासः विचेतसः-मनुष्य विशेष बुद्धिमान् बने।
२८ मन्द्रः मधुवचा ऋतावा विश्पतिः विशां दुरोणे अधायि-आनन्द बढ़ानेवाला मधुरभाषी ऋजुगामी प्रजापालक राजा प्रजाजनोंके घरों में जाकर बैठता है।(ऋग्वेद ७।७)
२९ अर्थः राजा समिन्धे-श्रेष्ठ राजा प्रकाशित होता है ।
२९ अर्थः राजा समिन्धे-श्रेष्ठ राजा प्रकाशित होता है ।
३० मन्द्रः यह्वः मनुषः सुमहान् अवेदि-सुखदायक महावीर मानवोंमें अत्यन्त श्रेष्ठ समझा जाता है।
३१ विश्वेभिः अनीकैः सुमना भुवः-सब सैनिकों के साथ प्रसन्नचित्तसे बर्ताव करो। ___
३२ अमीवचातनं शं भवाति--रोग दूर करना सुखदायी होता है।(ऋग्वेद ७/८)
३३ मन्द्रः जारः कवितमः पावकः उषसां उपस्थात् अबोधि-सानन्द-प्रसन्न, वृद्ध, ज्ञानी, शुद्धाचारी उपाकालके समय जागता है।
३४ सुकृत्सु द्रविणम्-अच्छा कर्म करनेवालेको धन दो।
३२ अमीवचातनं शं भवाति--रोग दूर करना सुखदायी होता है।(ऋग्वेद ७/८)
३३ मन्द्रः जारः कवितमः पावकः उषसां उपस्थात् अबोधि-सानन्द-प्रसन्न, वृद्ध, ज्ञानी, शुद्धाचारी उपाकालके समय जागता है।
३४ सुकृत्सु द्रविणम्-अच्छा कर्म करनेवालेको धन दो।
३५ अमूरः सुसंसत् शिवः कविः मित्रः भाति-जो मूर्ख नहीं, वह उत्तम साथी, कल्याणकारी, ज्ञानी, मित्र, तेजस्वी होता है।
३६ गणेन ब्रह्मकृतः मा रिषण्यः-संघशः ज्ञानका प्रचार करनेवालेका नाश नहीं होता।
३७ पुरन्धिं राये यक्षि-बहुत बुद्धिमान्को धन दो।
३८ पुरुनीथा जरस्त्र-विशेष नीतिमानों की स्तुति करो।(ऋग्वेद ७ । ९)
३९ शुचिः वृषा हरिः-शुद्ध और बलवान् बननेसे । दुःखका हरण होता है।
३८ पुरुनीथा जरस्त्र-विशेष नीतिमानों की स्तुति करो।(ऋग्वेद ७ । ९)
३९ शुचिः वृषा हरिः-शुद्ध और बलवान् बननेसे । दुःखका हरण होता है।
४० विद्वान् देवयावा वनिष्ठः-विद्वान् देवत्व प्राप्त करने लगा तो वह स्तुतिके योग्य होता है।
४१ मतयः देवयन्ती:-बुद्धियाँ देवत्व प्राप्त करने वाली हों।
४२ उशिजः विशः मन्द्रं यविष्ठम् ईडते-सुख चाहने वाली प्रजा सानन्द-प्रसन्न, तरुण वीरकी प्रशंसा करती है ।(ऋग्वेद ७।१०
४३ अध्वरस्य महान् प्रकेत:-हिंसा कुटिलतारहित कर्मका तू प्रवर्तक बन।(ऋग्वेद ७ । ११)
४४ महा विश्वा दुरितानि साह्रान्-अपने सामर्थ्य से सब दुरवस्थाओंको दूर कर। (ऋग्वेद ७ । १२)
४४ महा विश्वा दुरितानि साह्रान्-अपने सामर्थ्य से सब दुरवस्थाओंको दूर कर। (ऋग्वेद ७ । १२)
४५ विश्वशुचे धियं धे असुरघ्ने मन्म धीति भरध्वम्- प्रकारसे शुद्ध, बुद्धिमान् , असुरोंके नाशक वीरके लिये प्रशंसाके वचन बोलो।
४६ पशून् गोपाः- पशुओंका संरक्षण करो।
४७ ब्रह्मणे गातुं विन्द-ज्ञान-प्रचारका मार्ग जानो।
४७ ब्रह्मणे गातुं विन्द-ज्ञान-प्रचारका मार्ग जानो।
(ऋग्वेद ७ । १३)
४८ शुक्रशोचिषे दाशेम-बलवान् तेजस्वी वीरको दान देंगे।(ऋग्वेद ७ । १४)
४९ पञ्चचर्षणी: दमे दमे कविः युवा गृहपतिः निषसाद-पाँचों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषादोंके घरघरमें ज्ञानी तरुण गृहस्थ बैठा रहता है ।
४८ शुक्रशोचिषे दाशेम-बलवान् तेजस्वी वीरको दान देंगे।(ऋग्वेद ७ । १४)
४९ पञ्चचर्षणी: दमे दमे कविः युवा गृहपतिः निषसाद-पाँचों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषादोंके घरघरमें ज्ञानी तरुण गृहस्थ बैठा रहता है ।
५० स विश्वतः नः रक्षतु, अंहसः पातु- वह सब ओरसे हमारा रक्षण करे और हमें पापसे बचावे ।
५१ घुमन्तं सुवीरं निधीमहि- तेजस्वी श्रेष्ठ वीरको हम अपने सन्निधिमें रखते हैं।
५२ सुवीरः अस्मयुः-उत्तम वीर हमारे पास आवे ।
५३ वीरवद् यशः दाति-हमें वीरोंसे प्राप्त होनेवाला यश मिले।
५४ अंहसः रक्ष-पापसे बचाओ। (ऋग्वेद ७ । १५)
५५ सूरयः प्रियासः सन्तु-ज्ञानी प्रिय करनेवाले हों ।
५५ सूरयः प्रियासः सन्तु-ज्ञानी प्रिय करनेवाले हों ।
५६ द्रुहः निदः त्रायस्व-द्रोहियोंसे और निन्दकोसे हमारा बचाव करो।(ऋग्वेद ७ । १६)
५७ स्वध्वरा कृणुहि-उत्तम कर्म कुटिलतारहित होकर करो।(ऋग्वेद ७ । १७)
५८ सुमतौ शर्मन् स्याम–उत्तम बुद्धि और सुखसे हम युक्त हों।
५७ स्वध्वरा कृणुहि-उत्तम कर्म कुटिलतारहित होकर करो।(ऋग्वेद ७ । १७)
५८ सुमतौ शर्मन् स्याम–उत्तम बुद्धि और सुखसे हम युक्त हों।
५९ सखा सखायम् अतरत्-मित्र मित्रको बचाता है ।
६० मृध्रवाचं जेष्म-असत्य भाषण करनेवालेको हम पराभूत करेंगे।
६१ मन्युभ्यः मन्यु मिमाय-क्रोधीसे क्रोधको दूर
करो।
६२ सूरिभ्यः सुदिनानि व्युच्छान्-शानियाँको उत्तम दिन मिले।
६३ क्षत्रं दूणाशं अजरम्-धात्र तेज नष्ट न हो, पर बढ़ता जाय।(वाग्वेद ७ । १८)
६४ एकः भीमः विश्वाः कृष्टी: च्यावयति–एक भयंकर शत्रु सब प्रजाको हिला देता है।
६४ एकः भीमः विश्वाः कृष्टी: च्यावयति–एक भयंकर शत्रु सब प्रजाको हिला देता है।
६५ पृषता विश्वाभिः अतिभिः प्रावः-धैर्यसे सब संरक्षक शक्तियोंसे अपना संरक्षण करो।
६६ अब केभिः वस्थैः बायस्व-शूरतारहित संरक्षणके साधनोंसे हमारा रक्षण करो।
६७ प्रियासः सखायः नरः शरणे मदेम- प्रिय मित्ररूपी मनुष्योंको प्राप्त करके अपने घरमें आनन्दसे रहेंगे।
६८ नृणां सखा शूरः शिवः अविता भूः-मनुष्योंके शूर और कल्याणकारी मित्र एवं रक्षक बनो । ( ऋग्वेद ७ । १९)
६९ नर्यः यत् करिष्यन् अपः चक्रि:-मानोंका हित करनेवाला वीर जो करना चाहता है, करके छोड़ता है।
७० वस्वी शक्तिः अस्तु-सुखसे निवास करनेवाली शक्ति हो।(ऋग्वेद ७ । २०) -
७१ क्रत्वा जमन् अभि भूः-पुरुषार्थसे पृथ्वीपर विजय प्राप्त करो।(ऋग्वेद ७ । २१)
७२ तेसख्या शिवानि सन्तु-तेरी मित्रता हमारे लिये कल्याणकारी हो।(ऋग्वेद ७ । २२) -
७३ त्वं धीभिः वाजान विदयसे-तू बुद्धियों के साथ बलोंको देता है।(ऋग्वेद ७ । २३)
७४ नृभिः आ प्रयाहि-मनुष्योंके साथ प्रगति कर ।
७१ क्रत्वा जमन् अभि भूः-पुरुषार्थसे पृथ्वीपर विजय प्राप्त करो।(ऋग्वेद ७ । २१)
७२ तेसख्या शिवानि सन्तु-तेरी मित्रता हमारे लिये कल्याणकारी हो।(ऋग्वेद ७ । २२) -
७३ त्वं धीभिः वाजान विदयसे-तू बुद्धियों के साथ बलोंको देता है।(ऋग्वेद ७ । २३)
७४ नृभिः आ प्रयाहि-मनुष्योंके साथ प्रगति कर ।
७५ वृषणं शुष्मं दधत-बलवान् और सामर्थ्यवान् (वीर पुत्र) को घरमें रखो।
७६ सुवीराम् इषं पिन्व-उत्तम वीर पुत्र उत्पन्न करनेवाला अन्न प्राप्त करो।(ऋग्वेद ७ । २४)
७७ समन्यवः सेनाः समरन्त-उत्साही सैनिक लड़ते हैं।
७७ समन्यवः सेनाः समरन्त-उत्साही सैनिक लड़ते हैं।
७८ मनः विश्वव्यग मा विचारीत्-अपना मन चारों ओर भटकने न दो।
७९ देवजूतं सहः इयानाः-देवोंको प्रिय होनेवाली शक्ति प्राप्त करो।
८० तरुत्राः वाजं सनुयाम- हम तारक बल प्राप्त करें।(ऋग्वेद ७ । २५)
८० तरुत्राः वाजं सनुयाम- हम तारक बल प्राप्त करें।(ऋग्वेद ७ । २५)
[वैदिक वाणी ]
(प्रेषक-श्रीश्रीपाद दामोदर सातवलेकर )