महराज रंतिदेव की कथा
- राजा रंतिदेव का महान त्याग- प्रसन्न होकर त्रिदेव ने इन्हें दर्शन दिया
रंतिदेव राजा थे संसार ने ऐसा राजा कभी कदाचित ही पाया हो | एक राजा और वह अन्य के बिना भूखों मर रहा था | वह अकेला नहीं था उसकी स्त्री और बच्चे थे, कहना चाहिए कि राजा के साथ रानी और राजकुमार थे |
सब भूखों मर रहे थे अन्न का एक दाना भी उनके मुख में 48 दिनों से नहीं गया था, अन्न तो दूर जल के दर्शन नहीं हुए थे उन्हें |
राजा रंतिदेव को ना शत्रुओं ने हराया था, ना डाकुओं ने लूटा था और ना उनकी प्रजा ने विद्रोह किया था |
उनके राज्य में अकाल पड़ गया था अवर्षण जब लगातार वर्षों तक चलता रहे- इंद्र जब अपना उत्तरदायित्व भूल जाए- असहाय मानव कैसे जीवन निर्वाह करें |
महाराज रन्तिदेव उन लोगों में नहीं थे जो प्रजा के धन पर गुलछर्रे उडाया करते हैं |
प्रजा भूखी रहे तो राजा को पहले उपवास करना चाहिए ,यह मान्यता थी रंतिदेव की | राज्य में अकाल पड़ा अन्न के अभाव से प्रजा पीड़ित हुई, राज्य कोष और अंन्नागार में जो कुछ था पूरे का पूरा वितरित कर दिया गया |
जब राज्य कोष और अन्नागार रिक्त हो गए- राजा को भी रानी तथा पुत्र के साथ राजधानी छोड़नी पड़ी | पेट के कभी न भरने वाले गड्ढे में उन्हें भी तो डालने के लिए कुछ चाहिए था | राजमहल की दीवारों को देखकर पेट कैसे भरता, लेकिन पूरे देश में अवर्षण चल रहा था | कूप और सरोवर तक सूख गए थे , पूरे 48 दिन बीत गए जल के दर्शन नहीं हुए |
उनचासवां दिन आया, किसी ने महाराज रंतिदेव को पहचान लिया था | सवेरे ही उसने उनके पास थोड़ा सा घी,खीर,हलवा और जल पहुंचा दिया |
भूख प्यास से व्याकुल मरणासन्न उस परिवार को भोजन क्या मिला जैसे जीवनदान मिला, लेकिन भोजन मिल कर भी मिलना नहीं था | महाराज रंतिदेव प्रसन्न ही हुए जब उन्होंने एक ब्राह्मण अतिथि को आया देखा |
इस विपत्ति में भी अतिथि को भोजन कराए बिना भोजन करने के दोष से बच जाने की प्रसन्नता हुई उन्हें |
ब्राह्मण अतिथि भोजन करके गया ही था कि एक भूखा शुद्र पहुंचा महाराज ने उसे भी आदर से भोजन कराया, लेकिन शूद्र के जाते ही एक दूसरा अतिथि आया यह नया अतिथि अत्यंत था और उसके साथ जीभ निकाले हाफ्ते हुए कुत्ते थे | वह दूर से ही पुकार रहा था मैं और मेरे कुत्ते बहुत भूखे हैं मुझे कृपा करके कुछ भोजन दीजिए |
समस्त प्राणियों में जो अपने आराध्य को देखता है वह मांगने पर किसी को अस्वीकार कैसे कर दे , अपने प्रभु ही जब भूखे बनकर भोजन मांगते हों, रन्तिदेव ने बड़े आदर से पूरा भोजन अतिथि को दे दिया | वह और उसके कुत्ते तृप्त होकर चले गए | अब बचा था थोड़ा सा जल उस जल से ही रंतिदेव अपना कण्ठ सीचने जा रहे थे |
-महाराज मैं बहुत प्यासा हूं मुझे पानी पिला दीजिए ,एक चांडाल की पुकार सुनाई पड़ी | वह सचमुच इतना प्यासा था कि बड़े कष्ट से बोल रहा था- यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा था |
महाराज रंतिदेव पानी का पात्र उठाया, उनके नेत्र भर आए उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की- प्रभो मैं रिद्धि सिद्धि आदि ऐश्वर्य या मोक्ष नहीं चाहता | मैं तो चाहता हूं कि समस्त प्राणियों के हृदय में मेरा निवास हो उनके सब दुख मैं भोग लिया करूं और वे सुखी रहें |
यह जल इस समय मेरा जीवन है- मै इसे जीवित रहने की इच्छा वाले इस चांडाल को दे रहा हूं , इस कर्म का कुछ पुण्य फल हो तो उसे उसके प्रभाव से संसार के प्राणियों की भूख, प्यास, शांति, दीनता,शोक,विषाद और मोह का नाश हो जाए , संसार के प्राणी सुखी हों |
उस चाण्डाल को राजा रंतिदेव ने जल पिला दिया , लेकिन वे स्वयं-- उन्हें अब जल की आवश्यकता कहां थी |
विभिन्न वेश बनाकर उनके अतिथि होने वाले त्रिभुवनाधीश- ब्रह्मा, भगवान विष्णु, भगवान शिव और धर्मराज अपने रूपों में प्रत्यक्ष खड़े थे उनके सम्मुख |
महराज रंतिदेव की कथा