भगवद्भक्ति-भगवन्नाम ।
जो कलियुगमें भगवान् नारायणका पूजन करता है, वह धर्मके फलका भागी होता है। अनेकों नामोंद्वारा जिन्हें पुकारा जाता है तथा जो इन्द्रियोंके नियन्ता हैं, उन परम शान्त सनातन भगवान् दामोदरको हृदयमें स्थापित करके मनुष्य तीनों लोकोंपर विजय पा जाता है।
जो द्विज हरिभक्तिरूपी अमृतका पान कर लेता है, वह कलिकालरूपी साँपके डंसनेसे फैले हुए पापरूपी भयंकर विषसे आत्मरक्षा करनेके योग्य हो जाता है ।
यदि मनुष्योंने श्रीहरिके नामका आश्रय ग्रहण कर लिया तो उन्हें अन्य मन्त्रोंके जपकी क्या आवश्यकता है।
मेरे विचारसे इस संसारमें श्रीहरिकी भक्ति दुर्लभ है। जिसकी भगवान्में भक्ति होती है, वह मनुष्य निःसंदेह कृतार्थ हो जाता है ।
उसी-उसी कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये, जिससे भगवान् प्रसन्न हो । भगवान्के संतुष्ट और तृप्त होनेपर सम्पूर्ण जगत् संतुष्ट एवं तृप्त हो जाता है।
श्रीहरिकी भक्तिके बिना मनुष्योंका जन्म व्यर्थ बताया गया है । जिनकी प्रसन्नताके लिये ब्रह्मा आदि देवता भी यजन करते हैं, उन आदि-अन्तरहित भगवान् नारायणका भजन कौन नहीं करेगा।
जो अपने हृदयमें श्रीजनार्दनके युगल चरणोंकी स्थापना कर लेता है, उसकी माता परम सौभाग्यशालिनी और पिता महापुण्यात्मा हैं ।
'जगद्वन्द्य जनार्दन ! शरणागतवत्सल !' आदि कहकर जो मनुष्य भगवान्को पुकारते हैं, उनको नरकमें नहीं जाना पड़ता।
विष्णुमें भक्ति किये बिना मनुष्योंका जन्म निष्फल बताया जाता है । कलिकालरूपी भयानक समुद्र पापरूपी ग्राहोंसे भरा हुआ है, विषयासक्ति ही उसमें भँवर है, दुर्बोध ही फेनका काम देता है, महादुष्टरूपी सोके कारण वह अत्यन्त भीषण प्रतीत होता है, हरिभक्तिकी नौकापर बैठे हुए मनुष्य उसे पार कर जाते हैं।
इसलिये लोगोंको हरिभक्तिकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये । लोग बुरी-बुरी बातोंको सुननेमें क्या सुख पाते हैं, जो अद्भुत लीलाओंवाले श्रीहरिकी लीलाकथामें आसक्त नहीं होते ।
यदि मनुष्योंका मन विषयमें ही आसक्त हो तो लोकमें नाना प्रकारके विषयोंसे मिश्रित उनकी विचित्र कथाओंका ही श्रवण करना चाहिये । द्विजो ! यदि निर्वाणमें ही मन रमता हो, तो भी भगवत्कथाओंको सुनना उचित है।
उन्हें अवहेलनापूर्वक सुननेपर भी श्रीहरि संतुष्ट हो जाते हैं। भक्तवत्सल भगवान् हृषीकेश यद्यपि निष्क्रिय हैं, तथापि उन्होंने श्रवणकी इच्छावाले भक्तोंका हित करनेके लिये नाना प्रकारकी लीलाएँ की हैं ।
सौ वाजपेय आदि कर्म तथा दस हजार राजसूय यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी भगवान् उतनी सुगमतासे नहीं मिलते, जितनी सुगमतासे वे भक्तिके द्वारा प्राप्त होते हैं।
जो हृदयसे सेवन करने योग्य, संतोंके द्वारा बारंबार सेवित तथा भवसागरसे पार होनेके लिये सार वस्तु हैं,श्रीहरिके उन चरणोंका आश्रय लो। रे विषयलोलुप पामरो।।
यदि तुम अनायास ही दुःखोंके पार जाना चाहते हो तो गोविन्दके चारु चरणोंका सेवन किये बिना नहीं जा सकोगे ।
भगवान् श्रीकृष्णके युगल चरण मोक्षके ___ हेतु हैं, उनका भजन करो । मनुष्य कहाँसे आया है और कहाँ पुनः उसे जाना है, इस बातका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष धर्मका संग्रह करे।
(पद्म० स्वर्ग० ६१ । ७२-८४)
- पुराण वक्ता श्री सूत जी महाराज के द्वारा उपदेश-
कलौ नारायणं देवं यजते यः स धर्मभाक् ।
दामोदरं हृषीकेशं पुरुहूतं सनातनम् ॥
हृदि कृत्वा परं शान्तं जितमेव जगत्त्रयम् ।
कलिकालोरगादंशात् किल्बिषात् कालकूटतः ॥
हरिभक्तिसुर्धा पीत्वा उल्लङ्घयो भवति द्विजः ।
हरिभक्तिसुर्धा पीत्वा उल्लङ्घयो भवति द्विजः ।
किं जपैः श्रीहरेर्नाम गृहीतं यदि मानुषैः ।।
( पद्मपुराण, स्वर्ग० ६१ । ६-८)
( पद्मपुराण, स्वर्ग० ६१ । ६-८)
जो कलियुगमें भगवान् नारायणका पूजन करता है, वह धर्मके फलका भागी होता है। अनेकों नामोंद्वारा जिन्हें पुकारा जाता है तथा जो इन्द्रियोंके नियन्ता हैं, उन परम शान्त सनातन भगवान् दामोदरको हृदयमें स्थापित करके मनुष्य तीनों लोकोंपर विजय पा जाता है।
जो द्विज हरिभक्तिरूपी अमृतका पान कर लेता है, वह कलिकालरूपी साँपके डंसनेसे फैले हुए पापरूपी भयंकर विषसे आत्मरक्षा करनेके योग्य हो जाता है ।
यदि मनुष्योंने श्रीहरिके नामका आश्रय ग्रहण कर लिया तो उन्हें अन्य मन्त्रोंके जपकी क्या आवश्यकता है।
हरिभक्तिश्च लोकेऽत्र दुर्लभा हि मता मम ।
हरौ यस्य भवेद् भक्तिः स कृतार्थो न संशयः॥
तत्तदेवाचरेत्कर्म हरिः प्रीणाति येन हि ।
तस्मिंस्तुष्टे जगत्तुष्टं प्रीणिते प्रीणितं जगत् ॥
हरौ भक्तिं विना नृणां वृथा जन्म प्रकीर्तितम् |ब्रह्मादयः सुरा यस्य यजन्ते नीतिहेतवे ॥
नारायणमनाद्यन्तं न तं सेवेत को जनः ॥
तस्य माता महाभागा पिता तस्य महाकृती।
जनार्दनपदद्वन्द्वं हृदये येन धार्यते ॥
जनार्दन जगद्वन्द्य शरणागतवत्सल ।
इतीरयन्ति ये मा न तेषां निरये गतिः ।
( पद्म० स्वर्ग०६१ । ४२--४६)
मेरे विचारसे इस संसारमें श्रीहरिकी भक्ति दुर्लभ है। जिसकी भगवान्में भक्ति होती है, वह मनुष्य निःसंदेह कृतार्थ हो जाता है ।
उसी-उसी कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये, जिससे भगवान् प्रसन्न हो । भगवान्के संतुष्ट और तृप्त होनेपर सम्पूर्ण जगत् संतुष्ट एवं तृप्त हो जाता है।
श्रीहरिकी भक्तिके बिना मनुष्योंका जन्म व्यर्थ बताया गया है । जिनकी प्रसन्नताके लिये ब्रह्मा आदि देवता भी यजन करते हैं, उन आदि-अन्तरहित भगवान् नारायणका भजन कौन नहीं करेगा।
जो अपने हृदयमें श्रीजनार्दनके युगल चरणोंकी स्थापना कर लेता है, उसकी माता परम सौभाग्यशालिनी और पिता महापुण्यात्मा हैं ।
'जगद्वन्द्य जनार्दन ! शरणागतवत्सल !' आदि कहकर जो मनुष्य भगवान्को पुकारते हैं, उनको नरकमें नहीं जाना पड़ता।
विष्णुमें भक्ति किये बिना मनुष्योंका जन्म निष्फल बताया जाता है । कलिकालरूपी भयानक समुद्र पापरूपी ग्राहोंसे भरा हुआ है, विषयासक्ति ही उसमें भँवर है, दुर्बोध ही फेनका काम देता है, महादुष्टरूपी सोके कारण वह अत्यन्त भीषण प्रतीत होता है, हरिभक्तिकी नौकापर बैठे हुए मनुष्य उसे पार कर जाते हैं।
इसलिये लोगोंको हरिभक्तिकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये । लोग बुरी-बुरी बातोंको सुननेमें क्या सुख पाते हैं, जो अद्भुत लीलाओंवाले श्रीहरिकी लीलाकथामें आसक्त नहीं होते ।
यदि मनुष्योंका मन विषयमें ही आसक्त हो तो लोकमें नाना प्रकारके विषयोंसे मिश्रित उनकी विचित्र कथाओंका ही श्रवण करना चाहिये । द्विजो ! यदि निर्वाणमें ही मन रमता हो, तो भी भगवत्कथाओंको सुनना उचित है।
उन्हें अवहेलनापूर्वक सुननेपर भी श्रीहरि संतुष्ट हो जाते हैं। भक्तवत्सल भगवान् हृषीकेश यद्यपि निष्क्रिय हैं, तथापि उन्होंने श्रवणकी इच्छावाले भक्तोंका हित करनेके लिये नाना प्रकारकी लीलाएँ की हैं ।
सौ वाजपेय आदि कर्म तथा दस हजार राजसूय यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी भगवान् उतनी सुगमतासे नहीं मिलते, जितनी सुगमतासे वे भक्तिके द्वारा प्राप्त होते हैं।
जो हृदयसे सेवन करने योग्य, संतोंके द्वारा बारंबार सेवित तथा भवसागरसे पार होनेके लिये सार वस्तु हैं,श्रीहरिके उन चरणोंका आश्रय लो। रे विषयलोलुप पामरो।।
अरे निष्ठुर मनुष्यो ! क्यों स्वयं अपने आपको रौरव नरकमें _ गिरा रहे हो ।
भगवान् श्रीकृष्णके युगल चरण मोक्षके ___ हेतु हैं, उनका भजन करो । मनुष्य कहाँसे आया है और कहाँ पुनः उसे जाना है, इस बातका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष धर्मका संग्रह करे।
(पद्म० स्वर्ग० ६१ । ७२-८४)