भक्तिसे ही सबकी सार्थकता
भागवत महापुराण से भक्ति की सार्थकता का वर्णन करने वाले मोक्षकारी व भक्ति प्रदान करने वाले अनुपम श्लोक और उनका अर्थ |पुराण वक्ता श्री सूत जी महाराज के द्वारा यह उपदेश-
पतितः स्खलितश्चातः नुवा वा विवशो ब्रुवन् ।
हरये नम इत्युच्चैर्मुच्यते सर्वपातकात् ॥
संकीर्त्यमानो भगवाननन्तः श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम् ।
प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेष यथा तमोऽर्कोऽभ्रमि वातिवातः ॥
मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा न कथ्यते यद् भगवानधोक्षजः ।
तदेव सत्यं तदु हैव मङ्गलं तदेव पुण्यं भगवद्गुणोदयम् ॥
तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।
तदेव शोकार्णवशोषणं नृणांयदुत्तमश्लोक यशोऽनुगीयते ||
न तद् वचश्चित्रपदं हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद् ध्वाङ्कतीर्थं न तु हंससेवितं यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः ॥
स वाग्विसर्गो जनताघसम्प्लवी यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि य _च्छृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥
नैष्कर्पमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न ह्यर्पितं कर्म यदप्यनुत्तमम् ॥
यशःश्रियामेव परिश्रमः परो वर्णाश्रमा चारतप:श्रुतादिषु ।
अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयो गुणानुवाद श्रवणादिभिर्हरेः ||
अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः क्षिणोत्यभद्राणि शमं तनोति च ।
सत्वस्य शुद्धि परमात्मभक्ति ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम् ॥
( श्रीमद्भा० १२ । १२ । ४६-५४)
जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते, दुःख भोगते अथवा छींकते समय विवशतासे भी ऊँचे स्वरसे बोल उठता है"हरये नमः', वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।
यदि देश, काल एवं वस्तुसे अपरिच्छिन्न भगवान् श्रीकृष्णके नाम, लीला, गुण आदिका संकीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदिका श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही हृदयमें आ विराजते हैं और श्रवण-कीर्तन करनेवाले पुरुष सारे दुःख मिटा देते हैं ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अंधकारको और आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है।
जिस वाणीके द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान्के नाम, लीला, गुण आदिका उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर भी निरर्थक है—सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयों का प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत् कथा है।
जो वाणी और वचन भगवान्के गुणोंसे परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मङ्गलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं। जिस वचनके द्वारा भगवान्के परम पवित्र यशका गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है।
उसीसे अनन्त कालतक मनको परमानन्दकी अनुभूति होती रहती है । मनुष्योंका सारा शोक, चाहे वह समुद्र के समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचनके प्रभावसे सदाके लिये सूख जाता है।
जिस वाणीसे–चाहे वह रस, भाव, अलंकार आदिसे युक्त ही क्यों न हो-जगत्को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अत्यन्त अपवित्र है।
मानसरोवरनिवासी हंसोंके समान ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदयवाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान् रहते हैं।
इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो व्याकरण आदिकी दृष्टिसे दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परंतु जिसके प्रत्येक श्लोकमें भगवान्के सुयशसूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं।
वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान्की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती।
फिर जो कम भगवान्को अर्पण नहीं किया गया है-वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो-सर्वदा अमङ्गलरूप, दुःख देनेवाला ही है; वह तो शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है ।
वर्णाश्रमके अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदिके लिये जा बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है केवल यश अथवा लक्ष्मीकी प्राप्ति ।
परंतु भगवान्के गुण, लीला नाम आदिका श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलोका अविचल स्मृति प्रदान करता है।
भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमङ्गलोंको नष्ट कर देती और परम शान्तिका विस्तार करती है ।
उसीके द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, भगवान्की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्यसे युक्त भगवान्के स्वरूपका ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है।
भक्तिसे ही सबकी सार्थकता-
bhagwat puran ke upyogi shlok