दुःखज्वाला-दग्ध संसार
योगेश्वरेश्वर श्रीकृष्णचन्द्रने संसारके लिये कहा'
दुःखालयमशाश्वतम् ।'
यह विश्व तो दुःखका घर है । दुःख ही इसमें निवास करते हैं। साथ ही यह अशाश्वत है-नाशवान है।
सम्पूर्ण विश्व जल रहा है। दुःखकी दावाग्निमें निरन्तर भस्म हो रहा है यह संसार । क्या हुआ जो हमें वे लपटें नहीं दीख पड़तीं।
उलूकको सूर्य नहीं दीखते, अन्धोंको कुछ नही दीखता-अपनेको बुद्धिमान् माननेवाला मनुष्य यदि सचमुच ज्ञानवान् होतालेकिन वह तो अज्ञानके अन्धकारमें आनन्द मनानेवाला प्राणी बन गया है । उसके नेत्रोंपर मोहकी मोटी पट्टी बँधी है। कैसे देखे वह संसारको दग्ध करती ज्वालाको।
अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश—ये पाँच क्लेश बतलाये महर्षि पतञ्जलिने । अज्ञान, अहंकार, कुछ पदार्थों, प्राणियों, अवस्थाओंकी ममता, उनकी कामना और उनसे राग तथा उनके विरोधी पदार्थों, प्राणियों, अवस्थाओंसे द्वेष एवं शरीरको आत्मा मानना-कितने ऐसे प्राणी हैं जो इन क्लेशोंसे मुक्त हैं ?
काम, क्रोध, लोभ, मोहकी ज्वालाओंमें जल रहा है संसार । तृष्णा, वासना, अशान्ति–बेचैनीका पार नहीं है । मद, मत्सर, वैर, हिंसा--चारों ओर दावानल धधक रहा है ।
दुःख-दुःख और दुःख । लेकिन जैसे पतिंगे प्रज्वलित दीपकको कोई सुखद सुभोग्य वस्तु मानकर उसपर टूटते हैं-प्राणी मोहवश संसारकी इन ज्वालाओंको ही आकर्षण मान बैठे हैं। अशान्तिदुःख-मृत्यु-और क्या मिलना है यहाँ।
शान्ति और सुखकी आशा-संसारमें यह आशा । जलते संसारमें भला शान्ति कहाँ ? __शान्ति है । सुख है । आनन्द है । अनन्त शान्ति, - अविनाशी सुख, शाश्वत आनन्द–शान्ति, सुख और आनन्दका महासागर ही है एक । उस महासागरमें खड़े हो जानेपर संसारकी ज्वाला—त्रितापका भय स्पर्श भी नहीं कर पाते ।
कहाँ है वह ?
भगवान्को छोड़कर भला शान्ति, सुख और आनन्द अन्यत्र कहाँ होंगे। भगवान्का भजन ही है वह महासमुद्र । भगवान्का भजन करनेवाला भक्त-साधु उस महासमुद्र में स्थित है।
विषयोंसे वैराग्य, प्राणियोंमें भगवद्भावना, समता, अक्रोध, सेवा, दृढ़ भगवद्विश्वास–जहाँ शीतलता और पवित्रताका यह महासागर लहरा रहा है, कामनाओंकी ज्वाला, त्रितापोंकी ऊष्मा वहाँतक पहुँच कैसे सकती है।
वहाँ कामनाकी अग्नि नहीं है, स्पृहाकी ज्वाला नहीं है, ममताके मीठे विषयका भीषण अन्तस्ताप नहीं है और अहङ्कारकी लपटें सदाके लिये शान्त हो गयी हैं। '
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥'
(गीता २ । ७१)
इस निरन्तर जलते त्रिताप-तप्त संसारमें तो शान्ति है ही नहीं । वह तो है भगवान्में-- भगवान्के भजनरूप महासमुद्रमें । उस शान्ति-सुधा-सागरमें स्थित होनेपर ही इस ज्वालासे परित्राण पाया जा सकता है ।
दुःखज्वाला-दग्ध संसार / संसार की असारता का वर्णन-
sansar ke asarta ka varnan