भागवत महात्म्य श्लोक
bhagwat mahatmya shloka

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे!
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नम:
( मा.1,1 )
सत स्वरूप चित् स्वरूप और आनंद स्वरुप जो विश्व की उत्पत्ति पालन और संघार के एकमात्र हेतु है आध्यात्मिक- मानसिक ताप ,आधिदैविक -देवताओं के द्वारा प्रदान किया जाने वाला ताप और आधिभौतिक -प्राणियों के द्वारा प्रदान किए जाने वाला ताप इन त्रिविध तापो का जो नाश करने वाले हैं ऐसे श्री कृष्णाय श्रियः सहितः कृष्णाय श्री राधा रानी के सहित भगवान श्रीकृष्ण को हम सभी नमस्कार करते हैं|
यं प्रव्रजन्तमनुपेतम्पेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव I
पुत्रेति तन्मयतया तरवोsभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोsस्मि II२II
( मा.1,2 )
जिस समय श्री सुकदेव जी का उपनयन आदि संस्कार भी नहीं हुआ था, उस समय व्यस्त हो वन की ओर चल पड़े उन्हें वन की और जाते देख उनके पिता वेदव्यासजी पुत्र मोह से व्यतीत हो उन्हें पुकारने लगे ,हे बेटा है पुत्र मत जाओ रुक जाओ उस समय वृक्षों ने तन्मय होकर श्री सुकदेव जी की तरफ से उत्तर दिया |
हे वेदव्यास जी आप अत्यंत ज्ञानी हैं और इस प्रकार पुत्रमोह से दुखी हो रहे हैं ,हम अज्ञानी है परंतु हमें देखो प्रतिवर्ष हम में ना जाने कितने फल लगते हैं उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं परंतु हम दुखी नहीं होते इसलिए आप भी दुख त्याग दीजिए क्योंकि आत्म रूप से श्री सुकदेव जी हम सबके हृदय में विराजमान हैं ऐसे सर्वभूत हृदय श्री सुकदेव जी को मैं नमस्कार करता हूं ||
भागवत महात्म्य श्लोक
bhagwat mahatmya shloka
नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम्|
कथामृतरसास्वाद कुशलः शौनकोब्रवीत ||
( मा.1,3 )
तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य जो अत्यंत पवित्र है और साधकों को सिद्धि प्रदान करने वाला है ऐसे नैमिषारण्य तीर्थ में विराजमान परम विद्वान श्री सूतजी से कथामृत का रसास्वादन करने में कुशल श्री शौनक जी ने कहा |
अज्ञानध्वान्तविध्वंस कोटिसूर्यसमप्रभा |
सूताख्याहि कथासारं ममकर्ण रसायनम् ||
( मा.1,4 )
सूत जी आप का ज्ञान अज्ञानता रूपी अंधकार का नाश करने में करोड़ों सूर्य के समान है इसलिए आप हमारे कानों को अमृत के समान मधुर लगने वाली कथा सुनाइए।
कालव्यालमुखग्रासत्रासनिर्णाश हेतवे |
श्रीमद् भीगवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ||
( मा.1,11 )
काल रूपी महान सर्प का ग्रास बने हुए प्राणियों की दुख की निवृत्ति के लिए कलिकाल में श्री शुकदेव जी ने श्रीमद्भागवत का प्रवचन किया |
क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान् |
ब्रह्मरातो विचार्यैवं तदादेवाञ्जहास ह ||
( मा.1,16 )
श्री सुखदेव जी ने देवताओं की इस व्यापारिक बुद्धि को देखा तो कहने लगे देवताओं जैसे कांच मणि की बराबरी नहीं कर सकता उसी प्रकार स्वर्ग का अमृत कथामृत के बराबर नहीं हो सकता स्वर्ग का अमृत तो दीर्घजीवी बनाता है और कथामृत मनुष्य को दिव्य जीवी बनाता है| भागवत महात्म्य श्लोक
bhagwat mahatmya shloka
मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्र भागवते कलौ |
पठनाच्र्छवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम् ||
( मा.1,20 )
उस समय समस्त ऋषियों ने माना इस भागवत को पढ़ने से श्रवण से वैकुंठ की प्राप्ति निश्चित होती है।
कथं ब्रह्मन्दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान्।
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ||
( मा.1,26 )
देवर्षि इस प्रकार आप चिंतातुर क्यों हैं इतने शीघ्र तुम्हारे आगमन कहां से हो रहा है और अब तुम कहां जा रहे हो देवर्षि नारद ने कहा-
उत्पन्ना द्रविणेसाहं वृध्दिं कर्णाटके गता |
क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ||
( मा.1.48 )
मैं दक्षिण में उत्पन्न हुई तथा कर्नाटक में वृद्धि को प्राप्त हुई कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई और गुजरात में जाकर जीर्णता को प्राप्त हो गई वहां घोर कलिकाल के कारण पाखंडियों ने मुझे अंग भंग कर दिया-
वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणीनवा|
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च ||
( मा.1.61 )
इस वृंदावन को प्राप्त करके आज पुनः आप युवती हो गई यह वृंदावन धन्य है जहां भक्ति महारानी नृत्य करती हैं। भागवत महात्म्य श्लोक
bhagwat mahatmya shloka
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना |
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात् ||
( मा.1.68 )
जो फल अन्य युगों में तपस्या योग समाधि के द्वारा नहीं प्राप्त होता था वह फल कलयुग में मात्र भगवान श्रीहरि के कीर्तन से प्राप्त हो जाता है।
जयति जगति मायां यस्य काया धवस्ते वचन रचनमेकं केवलं चाकलय्य|
ध्रुवपद मपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोयम सकल कुशल पात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि ||
( मा.1.80 )
जिन आपके एकमात्र उपदेश को धारण करके कयाधु नंदन प्रहलाद ने माया पर विजय प्राप्त कर ली और जिन आपकी कृपा से ध्रुव ने ध्रुव पद को प्राप्त कर लिया ऐसे ब्रह्मा जी के पुत्र देवर्षि नारद को मैं प्रणाम करती हूं |
सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा|
यस्याः श्रवण मात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत||
( मा.3.25 )
भागवत की कथा का सदा सर्वदा सेवन करना चाहिए श्रवण करना चाहिए इसके श्रवण मात्र से भगवान श्रीहरि हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं |
किं श्रुतैर्बहुभिः शास्त्रैः पुराणैश्च भ्रमावहैः |
एकं भागवतं शास्त्रं मुक्तिदानेन गर्जति ||
( मा.3.28 )
बहुत से पुराण और शास्त्रों को सुनने से क्या प्रयोजन यह तो भ्रम उत्पन करने वाले हैं मुक्ति प्रदान करने के लिए एकमात्र भागवत शास्त्र ही गर्जना कर रहा है।
आजन्ममात्रमपि येन शठेन किचिं च्चित्तं विधाय शुकशास्त्र कथा न पीता |
चाण्डालवच्च खरवदवत् तेन नीतं. मिथ्या स्वजन्म जननी जनिदुख भाजा ||
( मा.3.42 )
जिन्होंने अपने जीवन में मन लगाकर भागवत का श्रवण नहीं किया वह चडांल अथवा गधे के समान है उसने व्यर्थ में ही अपनी मां को प्रसव पीड़ा प्रदान कि वह जीते जी मुर्दे के समान है मनुष्य रूप में भार रूप पशु के समान है ऐसे मनुष्य को धिक्कार है ऐसे स्वर्ग लोक में इंद्रादि देवता कहा करते हैं सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार भागवत की महिमा का वर्णन कर ही रहे थे कि उसी समय एक आश्चर्य हुआ |
भक्तिः सुतौ तौ तरूणौ गृहीत्वा प्रेमैकरूपा सहसाविरासीत |
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे नाथेति नामानि मुहुर्वदन्ति ||
( मा.3.67 )
भक्ति महारानी तरुण अवस्था को प्राप्त हुई अपने दोनों पुत्रों को लेकर वहां प्रकट हो गई|
इसका कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगी रिसियों ने सब उन्हें नृत्य करते हुए देखा तो कहने लगे यह कौन है और यह कैसे प्रकट हो गई सनकादि मुनिश्वर ने कहा रिसियों यह अभी-अभी कथा के अर्थ से प्रगट हुई है भक्ति महारानी ने कहा मुनिश्वर कलिकाल के प्रभाव से में जीर्ण नष्ट हो गई थी आपने कथा के रस से मुझे पुनः पुष्ट कर दिया | भागवत महात्म्य श्लोक
bhagwat mahatmya shloka
सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेपि धन्या निवसति ह्रदि येषां श्रीहरेर्भक्ति रेका |
हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय प्रविशति ह्रदि तेषां भक्तिसूत्रो पनद्धः ||
( मा.3.73 )
संपूर्ण त्रिभुवन में वे लोग निर्धन होकर भी धनवान है जिनके हृदय में भगवान श्री हरि की एकमात्र भक्ति निवास करती है इस भक्ति के सूत्र में बंध कर भगवान श्री हरि अपना लोक छोड़कर उन भक्तों के हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं।
ये मानवाः पाप कृतस्तु सर्वदा सदा दुराचाररता विमार्गगाः |
क्रोधाग्निदग्धाः कुटिलाश्च कामिनः सप्ताह यज्ञेन कलौ पुनन्ति ते||
( मा.4.11 )
जो मनुष्य सदा सर्वदा पाप करते रहते हैं दुराचारी हैं कुमार्गगामी है क्रोध की अग्नि में सदा जलते रहते हैं कुटिल है कामी है ऐसे लोग भी कलयुग में भागवत के सुनने से पवित्र हो जाते हैं। भागवत महात्म्य श्लोक
bhagwat mahatmya shloka
देहेस्थिमासं रूधिरेभिमतिं त्यजत्वं
जाया सुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च |
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगुनिष्ठं
वैराग्यराग रसिको भव भक्तिनिष्ठः ||
पिताजी यह शरीर अस्थि मांस और रुधिर का पिंड है इसे आपने जो अपना मान रखा है इसमें आपने जो मैं बुद्धि कर रखी है उसी को छोड़ दीजिए इस संसार को अहिर्निष क्षणभंगुर मानिए और ज्ञान राग के रसिक होकर भक्ति में नष्ट हो जाइये।
धर्मं भजस्व सततं त्यजलोकधर्मान्
सेवस्य साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम |
अन्यस्य दोषगुण चिन्तनमासु मुक्त्वा
सेवाकथारसमहो नितरां पिबत्वम् ||
इसलिए पिताजी वैराग्य राग के रसिक होकर भक्ति में निष्ठ हो जाइए लौकिक धर्मों को त्याग कर भगवत भजन रूपी धर्म का आश्रय लीजिए काम तृष्णा से रहित हो साधु पुरुषों की सेवा कीजिए दूसरों के गुण और दोषों का चिंतन करना छोड़ दीजिए और भगवान की कथा रूपी अमृत का पान कीजिए।
सुधामयं वचो यासां कामिनां रसवर्धनम् |
ह्रदयं क्षुरधराभां प्रियः के नामयोषिताम् ||
स्त्रियों की वाणी तो अमृत के समान कमियों के हृदय में रस का संचार करती है किंतु ह्रदय छूरे की धार के समान तीक्ष्ण होता है भला इन स्त्रियों का कौन प्यारा होता है।
अहं भ्राता त्वदीयोस्मि धुन्धकारीति नामतः |
स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाशितं मया ||
भैया मैं तुम्हारा भाई धुंधकारी हूं अपने दोष के कारण मैंने अपने ब्रम्हणत्व को नष्ट कर दिया मेरे कुकर्मो की कोई संख्या नहीं है जिसके कारण में प्रेतयोनि को प्राप्त हुआ हूं वायु का आहार करके जीवन यापन कर रहा हूं |
धन्या भागवती वार्ता प्रेतपीडा विनाशिनी |
सप्ताहोपि तथा धन्यः कृष्णलोकफलप्रदः ||
भैया यह भागवत की कथा धन्य है यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली है और भागवत की सप्ताहिक कथा तो साक्षात श्री कृष्ण का धाम प्रदान करने वाली है।
अत्रैव बहवः सन्ति श्रोतारो मम निर्मलाः |
आनीतानि विमानानि न तेषां युग यत्कुतः ||
यहां बहुत से निर्मल श्रोता है जिन्होंने भागवत कथा सुनी है फिर सबके लिए एक साथ विमान क्यों नहीं आए भगवान के पार्षदों ने कहा--
श्रवणस्य विभेदेन फलभेदोत्र संस्थितः |
श्रवणं तु कृतं सर्वै र्न तथा मननंकृतम् ||
गोकर्ण जी श्रवण के भेद के कारण ही ए फल में भेद हुआ है श्रवण तो सब ने किया परंतु जिस प्रकार धुंधकारी ने मनन किया उस प्रकार किसी और ने मनन नहीं किया।
आयोध्यावासिनः पूर्वं यथा रामेण संगताः |
तथा कृष्णेन ते नीता गोलोकंयोगिदुर्लभम् ||
और जैसे त्रेता युग में समस्त अयोध्यावासी भगवान श्री राम के साथ साकेत धाम चले गए थे उसी प्रकार कथा सुनने से समस्त श्रोता गणों को गोलोक धाम की प्राप्ति हुई l
दैवज्ञं तु समाहूय मुहूर्तं प्रच्छपयत्नतः |
विवाहे यादृशं वित्तं तादृशं परिकल्पयेत ||
जिन्हें कथा करानी है वे सर्वप्रथम किसी ज्योतिषी से उत्तम मुहूर्त पूंछे और जैसे विवाह में प्रसन्नतापूर्वक धन खर्च करते हैं उसी प्रकार कथा में बिना कंजूसी के धन खर्च करें |
विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्र विशुद्धिकृत |
दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योतिनिस्पृशः ||
कथा में वैष्णव ब्राह्मण भगवान को वक्ता के रूप में वर्णन करें वक्ता वेद शास्त्र की स्पष्ट व्याख्या करने में समर्थ हो दृष्टांत देने में कुशल हो।
भोजनं तु वरं मन्ये कथा श्रवण कारकम् |
नोपवासः वरः प्रोक्तःकथाविघ्न करोयदि ||
भोजन करके कथा सुने परंतु भोजन इतना करें कि आलस्य ना आए।
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