F janmadasya yato / जन्माद्यस्य यतोन्वयादि- भागवत कथा - bhagwat kathanak
janmadasya yato / जन्माद्यस्य यतोन्वयादि- भागवत कथा

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janmadasya yato / जन्माद्यस्य यतोन्वयादि- भागवत कथा

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 जन्माद्यस्य यतोन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्

    तेने ब्रह्मह्रदाय आदि कवये मुह्यन्ति यत्सूरयः |
तेजो वारिमृदां यथा विनिमयो यत्रत्रिसर्गो मृषा 
 धाम्ना स्वेन सदानिरस्तकुहकं सत्यंपरं धीमहि ||

जिससे इस जगत की उत्पत्ति पालन और संघार होता है | जो शत पदार्थों में अनुगत हैं और असद पदार्थों से पृथक हैं सर्वज्ञ है स्वयंप्रकाश है जिन्होंने सृष्टि के आदि में आदिकवि ब्रह्मा जी को संकल्प मात्र से ब्रह्मा जी को वेद का ज्ञान प्राप्त किया जिसके विषय में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं। 

जैसे तेज में जल का जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है उसी प्रकार यह त्रिगुण मई जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति रूपा सृष्टि मिथ्या  होने पर भी सत्य प्रतीत हो रही है जो अपने स्वयं प्रकाश से माया एवं माया के कार्य से सर्वथा मुक्त हैं ऐसे सत्यस्वरूप भगवान का हम ध्यान करते हैं। 

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