shrimad bhagwat mahapuran shlok in sanskrit
- भागवत पुराण - प्रथम स्कन्ध के श्लोक

जन्माद्यस्य यतोन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्मह्रदाय आदि कवये मुह्यन्ति यत्सूरयः |
तेजो वारिमृदां यथा विनिमयो यत्रत्रिसर्गो मृषा
धाम्ना स्वेन सदानिरस्तकुहकं सत्यंपरं धीमहि ||
जिससे इस जगत की उत्पत्ति पालन और संघार होता है | जो शत पदार्थों में अनुगत हैं और असद पदार्थों से पृथक हैं सर्वज्ञ है स्वयंप्रकाश है जिन्होंने सृष्टि के आदि में आदिकवि ब्रह्मा जी को संकल्प मात्र से ब्रह्मा जी को वेद का ज्ञान प्राप्त किया जिसके विषय में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं।
जैसे तेज में जल का जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है उसी प्रकार यह त्रिगुण मई जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति रूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी सत्य प्रतीत हो रही है जो अपने स्वयं प्रकाश से माया एवं माया के कार्य से सर्वथा मुक्त हैं ऐसे सत्यस्वरूप भगवान का हम ध्यान करते हैं।
धर्मः प्रोज्झितकैतवोत्र परमोनिर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् |
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैैरीश्वरः
सद्योह्रद्यवरुध्यतेत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्|
इस श्लोक में अनुबंध चतुष्टय का वर्णन किया गया है इस श्रीमद्भागवत का विषय क्या है |
धर्मः प्रोज्झितकैतवः इसमें कपट रहित परम धर्म का निरूपण किया गया है यही भागवत का विषय है भागवत के अधिकारी कौन है | निरर्मत्सराणां मत्सरता से रहित सत्पुरुष ही इसके अधिकारी हैं श्रीधर स्वामी जी कहते हैं------
परोत्कर्षा सहनं न इति मत्सरः|
जो दूसरे का उत्कर्ष को सह नहीं सकता उसे ही मत्सर कहते हैं |ऐसे मत्सर से रहित सत्पुरुष ही भागवत की अधिकारी हैं | तापत्रयोन्मूलनम् आध्यात्मिक आधिदैविक आधिभौतिक इन तीन प्रकार के पापों का नाश करना ही भागवत का प्रयोजन है इसका संबंध क्या है इस भागवत की श्रवण करने की इच्छा मात्र से भगवान श्रीहरि हृदय में आकर बंदी बन जाते हैं यही भागवत का संबंध है ऐसे महर्षि वेदव्यास जी के द्वारा रचित श्रीमद्भागवत के रहते हुए अन्य शास्त्रों से क्या प्रयोजन |
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निगमकल्पतरोर्गलितं फलं
शुकमुखादमृतद्रव सयुंतम् |
पिबत भागवतं रसमालयं
मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ||
यह वेद रूपी वृक्ष का पूर्ण परिपक्व फल है शुकदेव रूपी तोते के मुंह का स्पर्श हो जाने के कारण यह अमृत द्रव से युक्त है जिसमे छिलका गुठली आदि त्याज्य अन्स बिल्कुल भी नहीं है इसलिए हे रसिको ,हे भावुको जब तक जीवन है तब तक बारंबार इस भागवत रस का पान करो क्योंकि----
स्वर्गे सत्ये च कैलाशे वैकुणठे नास्तयं रसः |
अतः पिबन्तु सद्भाग्या या या मुञ्चत कर्हिचित् ||
यह भागवत रस स्वर्ग लोक सत्यलोक कैलाश और बैकुंठ में भी नहीं है मात्र पृथ्वी में ही सुलभ है इसलिए सदा इसका पान करो |
नैमिष निमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः |
सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्त्रसममासत ||
पवित्र नैमिषारण्य तीर्थ में सनकादि ऋषि ने 1000 वर्ष में पूर्ण होने वाले सत्र की दीक्षा ली |
यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक
मध्यात्मदीप मतितिर्षतां तमोन्धम् |
संसारिणां करुणयाह पुराणगुह्मं
तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम् ||
शौनक जी यह श्रीमद्भागवत महापुराण आत्म स्वरूप का अनुभव कराने वाला है और समस्त वेदों का सार है अज्ञान अंधकार में पड़े हुए और इस संसार सागर से पार पाने के इच्छुक प्राणियों पर करूणा कृपा करके श्री सुखदेव जी ने यह अध्यात्म दीप प्रज्वलित किया है ऐसे व्यास जी के पुत्र और प्राणियों के गुरु श्री सुखदेव जी को मैं प्रणाम करता हूं उन की शरण ग्रहण करता हूं | shrimad bhagwat mahapuran shlok in sanskrit
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् |
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जय मुदीरयेत् ||
भगवान नारायण देवी सरस्वती और व्यास जी को भी मैं बारंबार नमस्कार करता हूं इस श्लोक में आया है जय मुदीरयेत जय का अर्थ यहां पर जय घोष आदि करना नहीं है जय क्या है |
इतिहास पुराणां मे रामश्च चरितं तथा |
जयेति नाम चैतेषां प्रवदन्ति मनीषिणः ||
इतिहास महाभारत पुराण बाल्मीकि रामायण इन को विद्वान लोग जय नाम से पुकारते हैं और मुनियों आपने लोक के मंगल के लिए बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है |
स वै पुसां परोधर्मो यतो भक्ति रधोक्षजे |
अहैतुक्य प्रतिहिता ययात्मा सम्प्रसीदति ||
मनुष्य का परम धर्म वही है जिसके करने से भगवान श्री हरि की भक्ति प्राप्त हो और वह भक्ति निस्काम हो तथा सदा बनी रहे क्योंकि कहा गया है |
धर्मः स्वनिष्ठितः पुसां विष्वक्सेन कथासु यः |
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ||
मनुष्य भली प्रकार से स्वधर्म का पालन करता है परंतु उसको धर्म के पालन करने से भगवान और भगवान की कथाओं में प्रेम उत्पन्न नहीं होता वह तो केवल श्रम ही है |
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् |
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ||
उस तत्व को ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं योगी परमात्मा कहते हैं और भक्त भगवान कहते हैं |
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विद्यते ह्रदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संसयाः |
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्टएवात्मनीश्वरे ||
जब उस तत्व का ज्ञान होता है तब ह्रदय की गांठ खुल जाती है समस्त संदेह निवृत्त हो जाते हैं और कर्म बंधन छीड़ हो जाते हैं |
कस्मिन युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना |
कुतः सन्चोदितः कृष्णः कृतवान संहितां मुनिः ||
इस श्रीमद् भागवत महापुराण का निर्माण वेदव्यास जी ने किस युग में किया किस स्थान पर तथा किस कारण से किया |
द्वापरे समनुपप्राप्ते तृतीये युग पर्यये |
जातः पराशरद्योगी वासव्यां कलयाहरे ||
सौनक जी तीसरे युग द्वापर में महर्षि पाराशर के द्वारा वसुकन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के कला अवतार श्री वेदव्यास जी भगवान का जन्म हुआ |
यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः |
न तथा वासुदेवस्य महिमाह्यनुवर्णितः ||
वेदव्यास जी आपने जिस प्रकार धर्म अर्थ काम और मोक्ष पुरुषार्थ का पुराणों में वर्णन किया है उस प्रकार आपने भगवान तथा भगवान की भक्ति का वर्णन नहीं किया |
नैष्कर्म्य मप्यच्युत भाव वर्जितं
न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् |
कोई काम निष्कामता से युक्त हो परंतु भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी शोभा नहीं होती |
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अहं पुरातीत भवे भवं मुने
दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् |
निरूपितो बालक एव योगिनां
शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ||
व्यास जी मैं पूर्व जन्म एक दासी का पुत्र था मेरा जन्म हुआ और मेरा इतना बड़ा दुर्भाग्य मेरे छोटे में ही मेरे पिता जी का स्वर्गवास हो गया था मेरी मां मेरा लालन पालन करने लगी एक दिन मेरे गांव में कुछ वेदपाठी ब्राह्मण चातुर्मास व्यतीत करने आए और उनकी सेवा में मुझे नियुक्त कर दिया गया मैं मनोयोग से उनकी सेवा करने लगा |
नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि |
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सकंर्षणाय च ||
यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां
वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु |
वृकोदराविद्ध गदाभिमर्श
भग्नोरूदण्डे धृतराष्ट्र पुत्रे ||
सौनक जी =जब महाभारत युद्ध में कौरव और पांडवों के पक्ष के अनेकों वीर वीरगति को प्राप्त हो गए और भीमसेन के प्रचंड गदा के प्रहार से दुर्योधन की जंघा भग्न हो गई दुर्योधन कुरुक्षेत्र की समरांगण में अधमरा पड़ा-पड़ा कराह रहा था।
माता शिशूनां निधनं सुतानां
निशम्य घोरं परितप्यमाना |
तदारूदद्वाष्प कलाकुलाक्षी
तां सान्त्वयन्नाह किरीट माली ||
यहां प्रातः काल द्रोपती ने अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुना अत्यंत दुखी हो गई विलाप करने लगी | अर्जुन ने कहा द्रोपती शोक मत करो जिस आतताई अधम ब्राह्मण ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है उसका सिर काट कर तुम्हें भेंट करूंगा तब तुम्हारे आंसू पोछूंगा|
ब्रह्मबन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हण: |
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम् ||
अर्जुन अधम ब्राम्हण को भी नहीं मारना चाहिए और आतताई को छोड़ना नहीं चाहिए यह दोनों बातें मैंने ही शास्त्रों में कहीं है तुम मेरी इन दोनों आज्ञाओं का पालन करो |
वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणं तथा |
एष हि ब्रह्मबन्धूनां वधो नान्योस्ति दैहिकः ||
सिर मोड़ देना धन छीन लेना स्थान से निष्कासित कर देना यही ब्राह्मणों का वध है उनके लिए शारीरिक वध का विधान नहीं है |
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पाहि पाहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते |
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युःपरस्परम्||
हे देवाधिदेव जगदीश्वर रक्षा कीजिए रक्षा कीजिए इस संसार में आपके अतिरिक्त अभय प्रदान करने वाला मुझे कोई और दिखाई नहीं दे रहा |
नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्|
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिर वस्थितम् ||
हे प्रभु मैं आपको प्रणाम करती हूं आज मैं जान गई आप प्रकृति से परे साक्षात परब्रम्ह परमात्मा है। जो समस्त प्राणियों के अंदर बाहर स्थित हैं |
यथा ह्रषीकेश खलेन देवकी
कंसेन रूध्दातिचिरं शुचार्पिताः |
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो
त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद् गणात ||
प्रभु जिस प्रकार आपने दुष्ट कंस ने देवकी की रक्षा की उसी प्रकार आपने मेरे पुत्रों के साथ मेरी अनेकों बार विपत्तियों से रक्षा की आप माता देवकी से अधिक मुझसे स्नेह करते हैं क्योंकि दुष्ट कंस से आपने मात्र देवकी की ही रक्षा की उनके पुत्रों की रक्षा नहीं कर सके परंतु मेरी तो आपने मेरे पुत्रों के साथ सदा रक्षा किए
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरू |
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भव दर्शनम् ||
मुझे जीवन में प्रत्येक पग में विपत्तियों की ही प्राप्ति हो क्योंकि विपत्ति होगी तो आपके दर्शन की प्राप्ति होगी और आपका दर्शन संसार सागर से मुक्त कराने वाला है |
विपदो नैव विपदः सम्पदो नैव सम्पदः |
विपद् विष्मरणम् विष्णोः सम्पन्न नारायणं स्मृतिः||
विपत्ति विपत्ति नहीं है संपत्ति संपत्ति नहीं है भगवान का विस्मरण होना ही भगवान को भूल जाना ही विपत्ति है और भगवान का स्मरण करना ही संसार की सबसे बड़ी संपत्ति है |
स देव देवो भगवान् प्रतीक्षतां
कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् |
प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लस-
न्मुखाम्भुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजो ||
वे ही देवाधिदेव श्री कृष्ण जब तक मैं अपने इस शरीर को छोड़ ना दूं तब तक वह प्रसन्न मुख से हंसते हुए चतुर्भुज रूप धारण कर मेरे सामने खड़े रहे |
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इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुगंवे विभूम्नि |
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं
प्रकृतिमपेयुषि यद्भवप्रवाहः ||
त्रिभुवनकमनं तमाल वर्णं
रविकरगौरवराम्बरं दधाने |
वपुरलककुलावृताननाब्जं
विजयसखे रतिरस्तुमेनवद्या ||
प्रभु त्रिलोकी में आपके सामान सुंदर कोई दूसरा नहीं है श्याम तमाल के समान सांवरे शरीर पर सूर्य की रश्मियों के समान श्रेष्ठ पीतांबर शोभायमान हो रहा है मुख पर घुंघराली अलकावलिया लटक रही हैं ऐसे श्रीकृष्ण से मैं अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हूं।
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा -
मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः |
धृतरथचरणोभ्ययाच्चलद्गु-
र्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ||
जब युद्ध के प्रारंभ में के कुछ दिन व्यतीत हो गए और पांडवों का बाल भी बांका नहीं हुआ उस समय मामा शकुनी के बहकाने पर दुर्योधन ने पितामह भीष्म से कहा पितामह आप पक्षपाती हैं आपके हृदय में पांडवों के प्रति मोह है।
अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा |
उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः ||
तस्य जन्म महाबुद्धेः कर्माणि च महात्मनः |
निधनं च यथैवासीत्स प्रेत्य गतवान यथा ||
सौनक जी श्री सूतजी से पूछते हैं अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उत्तरा का जो गर्भ नष्ट हो गया था और जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः जीवित कर दिया था उन महाराज परीक्षित के जन्म कर्म और किस प्रकार उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई है बताइए|
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विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम् |
ज्ञात्वागाध्दास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ||
सौनक जी महात्मा विदुर महर्षि मैत्रेय जी से आत्म ज्ञान प्राप्त करके तीर्थ यात्रा से हस्तिनापुर लौट आए धर्मराज युधिष्ठिर और पांडवों ने महात्मा विदुर को आया देखकर प्रसन्न हो गए उनका स्वागत सत्कार किया।
कच्चित् प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना |
शून्योस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेन्यथानरुक ||
हो ना हो अर्जुन जिसे तुम अपना प्रियतम परम हितैषी समझते थे उन्हीं श्रीकृष्ण से तुम रहित हो गए हो |
वञ्चितोहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा |
येन मेपहतं तेजो देवविस्मापनं महत् ||
भैया भगवान श्री कृष्ण ने मित्र का रूप धारण कर मुझे ठग लिया जिन श्री कृष्ण की कृपा से मैंने राजा द्रुपद के स्वयंवर में मत्स्य भेद कर द्रोपती को प्राप्त किया था|
तद्वै धनुष्त इषवः स रथो हयास्ते
सोहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति |
सर्वं क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तं
भस्मन् हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमूष्याम् ||
यह मेरा वही गांडीव धनुष है वही बांण वही रथ वही घोड़े और वही रथी मैं अर्जुन हूं |जिसके सामने बड़े-बड़े दिग्विजयी राजा सिर झुकाया करते थे परंतु श्री कृष्ण के ना रहने पर सब शक्तिहीन हो गए हैं |
तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः कृते कृताः |
अधर्माशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसन्ग मदैस्तव ||
सतयुग में आपके तपस्या पवित्रता दया और सत्य यह चार चरण थे इस समय अधर्म के अंस अभिमान के कारण तपस्या का नाश हो गया. आशक्ति के कारण पवित्रता का नास हो गया और मद के कारण दया का नाश हो गया इस समय मात्र आपका चौथा चरण सत्य ही शेष बचा है |
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः |
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः |
ततोनृतं मदं कामं रजो वैरं च पञ्चमम् ||
जहां जुआ सट्टा खेला जाता है वहां कलयिग झूठ के रूप में निवास करता है |जहां मदिरापान होता है वहां कलयुग मद के रूप में निवास करता है जहां भ्यविचार होता है वहां कलयुग काम के रूप में निवास करता है जहां हिंसा होती है वहां कलयुग रजोगुण के रूप में निवास करता है | shrimad bhagwat mahapuran shlok in sanskrit
इति लघिंतमर्यादं तक्षकः सप्तमेहनि |
दङक्षति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम् ||
आज से सातवें दिन तक्षक नामक नाग के डसने से महाराज परीक्षित की मृत्यु होगी इस प्रकार श्राप दे ऋषि श्रृंगी आश्रम में लौट आए |
अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् |
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ||
यच्छृोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो |
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ||
हे योगियों के परम गुरु जो सर्वथा मृयमाण है जिनकी मृत्यु 7 दिन में होने वाली है ऐसे पुरुष को क्या करना चाहिए | किसका श्रवण करना चाहिए किसका जप करना चाहिए किस का स्मरण करना चाहिए किसका भजन करना चाहिए और क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए सब बताने की कृपा करें
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