यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं श्लोक-
yam pravrajanta manupetamapetakrtyam shlok
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव I
पुत्रेति तन्मयतया तरवोsभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोsस्मि II२II
( मा.1,2 )
जिस समय श्री सुकदेव जी का उपनयन आदि संस्कार भी नहीं हुआ था, उस समय व्यस्त हो वन की ओर चल पड़े उन्हें वन की और जाते देख उनके पिता वेदव्यासजी पुत्र मोह से व्यतीत हो उन्हें पुकारने लगे ,हे बेटा है पुत्र मत जाओ रुक जाओ उस समय वृक्षों ने तन्मय होकर श्री सुकदेव जी की तरफ से उत्तर दिया |
हे वेदव्यास जी आप अत्यंत ज्ञानी हैं और इस प्रकार पुत्रमोह से दुखी हो रहे हैं ,हम अज्ञानी है परंतु हमें देखो प्रतिवर्ष हम में ना जाने कितने फल लगते हैं उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं परंतु हम दुखी नहीं होते इसलिए आप भी दुख त्याग दीजिए क्योंकि आत्म रूप से श्री सुकदेव जी हम सबके हृदय में विराजमान हैं ऐसे सर्वभूत हृदय श्री सुकदेव जी को मैं नमस्कार करता हूं ||
हे वेदव्यास जी आप अत्यंत ज्ञानी हैं और इस प्रकार पुत्रमोह से दुखी हो रहे हैं ,हम अज्ञानी है परंतु हमें देखो प्रतिवर्ष हम में ना जाने कितने फल लगते हैं उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं परंतु हम दुखी नहीं होते इसलिए आप भी दुख त्याग दीजिए क्योंकि आत्म रूप से श्री सुकदेव जी हम सबके हृदय में विराजमान हैं ऐसे सर्वभूत हृदय श्री सुकदेव जी को मैं नमस्कार करता हूं ||
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