bhagwat ekadash skandh shloka
भगवान ने अपनी प्राप्ति का जो सरलतम उपाय बताया है, उसे ही भागवत धर्म कहते हैं | इस भागवत धर्म का पालन करने वाले साधक को भगवान नारायण की निष्काम भक्ति करनी चाहिए , और साधना में कोई त्रुटि भी हो जाए तो उस साधक का पतन नहीं होता वह भागवत धर्म है।
शरीर, मन ,वाणी, इंद्रिय तथा बुद्धि के द्वारा मनुष्य अपने स्वभाव से जो भी कर्म करें वह भगवान के चरणों में समर्पित कर दे, यही है निष्काम भक्ति और यही भागवत धर्म भी है |
राजन जो सभी के प्रति भगवत भाव रखता है सभी में समान भाव रखता है , वह भगवान का उत्तम भक्त है |
राजन संसारी मनुष्य सुख की प्राप्ति के लिए दुख की निवृत्ति के लिए अनेकों कर्म करता है, ऐसे मनुष्य जो मोह माया से पार पाना चाहते हैं , उन्हे विचार करना चाहिये कि उनके कर्म का फल किस तरह विपरीत होता है | सुख के स्थान पर दुख की प्राप्ति होती है और दुख की निवृत्ति के स्थान पर दिन-ब-दिन दुख बढ़ता जाता है।
यः शास्त्र विधिमुत्सृज्य वर्तते काम कारतः |
जो शास्त्र विधि का उल्लंघन करता है और मनमाना आचरण करता है तो न ही उसे सिद्धि मिलती है , ना ही सुख मिलता है और ना ही परम गति की प्राप्ति होती है | इसलिए क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए इस विषय में शास्त्र ही प्रमाण हैं |
राजन रजोगुण के कारण ऐसे लोगों के बड़े बड़े संकल्प होते हैं। अनेकों कामनाएं होती है जब उनकी कामनाएं पूर्ण नहीं होती तो उन्हें क्रोध आता है वह अत्यंत परिश्रम करके ग्रह पुत्र मित्र और धन के लिए अनेकों प्रयास करते हैं, परंतु अंत में उन सब को ना चाहते हुए भी उन्हें यह शरीर छोड़ कर जाना पड़ता है और ऐसे लोग ना चाहने पर भी विवश होकर नरक में ही जाते हैं |
प्रभु मैं आपके चरण कमलों को छोड़कर एक क्षण भी नहीं रह सकता इसलिए आप मुझे अपने धाम ले चलिए,,,,
आशा परम दुख देने वाली है, आशा के त्याग से परम सुख की प्राप्ति होती है आशा का त्याग करके पिंगला सुख पूर्वक सो गई।
उद्धव योग, सांख्य, धर्म, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग, यज्ञ, दक्षिणा, व्रत, नियम, और यम से भी मैं उतना प्रसन्न नहीं होता जितना सत्संग से होता हूं सत्संग समस्त आशक्ति को नष्ट कर देता है |
पिताजी जो यह चित्त है विषयों में घुसा रहता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाता है, ऐसी स्थिति में जो मुक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं वह इन दोनों को एक दूसरे से अलग कैसे कर सकता है ?
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