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ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये |
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हितान् |

भगवान ने अपनी प्राप्ति का जो सरलतम उपाय बताया है, उसे ही भागवत धर्म कहते हैं | इस भागवत धर्म का पालन करने वाले साधक को भगवान नारायण की निष्काम भक्ति करनी चाहिए , और साधना में कोई त्रुटि भी हो जाए तो उस साधक का पतन नहीं होता वह भागवत धर्म है।



कायेन वाचा मनसैन्द्रियैर्वा
    बुद्ध्यात्मना  वानुसृतस्वभावात् |
करोति यद्यत सकलं परस्मै
     नारायणायेति समर्पयेत्तत् |

शरीर, मन ,वाणी, इंद्रिय तथा बुद्धि के द्वारा मनुष्य अपने स्वभाव से जो भी कर्म करें वह भगवान के चरणों में समर्पित कर दे, यही है निष्काम भक्ति और यही भागवत धर्म भी है |



सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद्भावमात्मनः |
भूतानि भगवत्यात्यनेष भागवतोत्तमः|

राजन जो सभी के प्रति भगवत भाव रखता है सभी में समान भाव रखता है , वह भगवान का उत्तम भक्त है | 



कर्माण्यारभमाणानां दुःखहत्यै सुखाय च |
पश्येत् पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् |

राजन संसारी मनुष्य सुख की प्राप्ति के लिए दुख की निवृत्ति के लिए अनेकों कर्म करता है, ऐसे मनुष्य जो मोह माया से पार पाना चाहते हैं , उन्हे विचार करना चाहिये कि उनके कर्म का फल किस तरह विपरीत होता है | सुख के स्थान पर दुख की प्राप्ति होती है और दुख की निवृत्ति के स्थान पर दिन-ब-दिन दुख बढ़ता जाता है।




यः शास्त्र विधिमुत्सृज्य वर्तते काम कारतः |
न स सिद्धी नमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||
तस्मातक्षात्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्र विधानोक्ता कर्मकर्तु मिहार्हसि ||

जो शास्त्र विधि का उल्लंघन करता है और मनमाना आचरण करता है तो न ही उसे सिद्धि मिलती है , ना ही सुख मिलता है और ना ही परम गति की प्राप्ति होती है | इसलिए क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए इस विषय में शास्त्र ही प्रमाण हैं |




रजसाघोर संकल्पा कामुका अहिमन्यवः |
दाम्भिका मानिनः पापा विहसन्त्यच्युतप्रियान् ||

राजन रजोगुण के कारण ऐसे लोगों के बड़े बड़े संकल्प होते हैं। अनेकों कामनाएं होती है जब उनकी कामनाएं पूर्ण नहीं होती तो उन्हें क्रोध आता है वह अत्यंत परिश्रम करके ग्रह पुत्र मित्र और धन के लिए अनेकों प्रयास करते हैं, परंतु अंत में उन सब को ना चाहते हुए भी उन्हें यह शरीर छोड़ कर जाना पड़ता है और ऐसे लोग ना चाहने पर भी विवश होकर नरक में ही जाते हैं |



नाहं तवाङ्घ्रिकमलं क्षणार्ध मपि केशव |
त्यक्तुं समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि |

प्रभु मैं आपके चरण कमलों को छोड़कर एक क्षण भी नहीं रह सकता इसलिए आप मुझे अपने धाम ले चलिए,,,,



आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् |
यथा संदिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिङ्गला |

आशा परम दुख देने वाली है, आशा के त्याग से परम सुख की प्राप्ति होती है आशा का त्याग करके पिंगला सुख पूर्वक सो गई।



न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च |
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ||
व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः |
यथा वरुन्द्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम् ||

उद्धव योग, सांख्य, धर्म, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग, यज्ञ, दक्षिणा, व्रत, नियम, और यम से भी मैं उतना प्रसन्न नहीं होता जितना सत्संग से होता हूं सत्संग समस्त आशक्ति को नष्ट कर देता है | 



गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतांसि च प्रभो |
कथमन्योन्यसत्यागो मुमुक्षोरतितितीर्षोः |

पिताजी जो यह चित्त है विषयों में घुसा रहता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाता है, ऐसी स्थिति में जो मुक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं वह इन दोनों को एक दूसरे से अलग कैसे कर सकता है ? 

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