F भागवत श्लोक संस्कृत /bhagwat shlok in sanskrit - bhagwat kathanak
भागवत श्लोक संस्कृत /bhagwat shlok in sanskrit

bhagwat katha sikhe

भागवत श्लोक संस्कृत /bhagwat shlok in sanskrit

भागवत श्लोक संस्कृत /bhagwat shlok in sanskrit

 भागवत श्लोक संस्कृत /bhagwat shlok in sanskrit


अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती |
विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थिता |

मैं सूर्य नारायण की पुत्री कालिंदी हूं | श्री कृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रही हूं, श्री कृष्ण ने जब यह सुना कालिंदी का हाथ पकड़ा उन्हें रथ में बिठाकर इंद्रप्रस्थ ले आए तथा शुभ मुहूर्त में उनसे विधिवत रूप से विवाह कर लिए |


नृगो नाम नरेन्द्रोहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो |
दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम् ||

प्रभु मैं इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुआ  इक्ष्वाकु का पुत्र राजा न्रग हूँ, यदि आपने दानियों के नाम सुने हैं तो मेरा भी नाम आपके कानों में अवश्य आया होगा| 



नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया |
ब्रम्हस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि |

मैं हलाहल विष को विश नहीं मानता क्योंकि उसकी दवा हो सकती है परंतु जो ब्राह्मणों का अपराध करता है, उनके धन का हरण करता है संसार में उसे बचाने वाली कोई औषधि नहीं |


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स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रम्हवृत्तिं हरेच्च यः|
षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः

क्योंकि कहा गया है जो मनुष्य अपने द्वारा दी हुई अथवा दूसरों के द्वारा दी हुई ब्राम्हणों की वृत्ति का हरण करता है वह साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कीडा बनता है और उसके बाद भयंकर नर्क को भोगता है | 



राम रामाखिलाधार प्रभावं न विदाम ते|
मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षन्तुमर्हस्यतिक्रमम्|

हे अखिल जगत के आधार हम आप के प्रभाव को नहीं समझ सके आप हमारे इस अपराध को क्षमा कीजिए , दुर्योधन ने सांब के साथ अपनी पुत्री लक्ष्मणा का विवाह किया और बहुत दहेज देकर उसे विदा किया|



कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राम्हणो ब्रम्हवित्तमः|
विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ||
राजा परीक्षित कहते हैं गुरुदेव अभी तक आपसे मैंने जो प्रश्न किया है आप उसी का उत्तर दिए हैं | हे गुरुदेव आप मुझे वह कथा सुनाइए जो आपको बड़ी प्यारी लगती हो और जिसे मैंने भी ना सुनी हो |


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क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः |
ब्रम्हबन्धुरितिस्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः |

कहां तो मैं पापी और दरिद्र ब्राह्मण और कहां लक्ष्मी के एकमात्र आश्रय श्री कृष्ण मैं ब्राह्मण हूं इसलिए उन्होंने मुझे ह्रदय से लगा लिया वह तो संसार के एकमात्र पालनकर्ता और श्री हरिनारायण है उन्होंने मुझे धन इसलिए नहीं दिया क्योंकि धन प्राप्त करने पर भक्त भगवान को भूल जाता है | 



अहं हि सर्वभूतानामादिरन्तोन्तरं बहिः 
भौतिकानां यथा खं वार्भूर्वायुर्ज्योतिरङ्गनाः

गोपियों संसार में जितने भी पदार्थ हैं उनके आदि मध्य और अंत में केवल में ही में विद्यमान हूं मेरे अलावा कुछ है ही नहीं, आप लोग ऐसा अनुभव करो कि मैं सर्वत्र व्याप्त हूं भगवान श्री कृष्ण ने जब इस प्रकार का उपदेश दिया तो गोपियों का जो जीव कोष था वह दूर हो गया और वे भगवत भाव में स्थित हो गई |



न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः |
ते पुनत्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः |

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं केवल जलों के तीर्थों में ही तीर्थ नहीं है और मिट्टी पत्थर की मूर्ति ही देवता नहीं है यह सब तो हमें दीर्घकाल की तपस्या सेवा से प्राप्त होते हैं , परंतु संत पुरुषों के दर्शन मात्र से ही जो फल प्राप्त हो जाता है वो अनेकों पूजन से नहीं प्राप्त होता |

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तिस्त्रः कोट्यः सहस्त्राणामष्टाशीतिशतानि च |
आसन् यदुकुलाचार्यः कुमाराणामिति श्रुतम् |

कि यदुवंश के बालकों को शिक्षा प्रदान करने के लिए तीन करोड़ अठ्ठासि लाख अचार्य थे, भगवान श्री कृष्ण ने पृथ्वी पर इतने बड़े भार को देखा तो उसके विनाश का विचार करने लगे |

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