Dhundhukari Ki Katha /धुंधुकारी की कथा

 Dhundhukari Ki Katha / धुंधुकारी की कथा

Dhundhukari Ki Katha / धुंधुकारी की कथा


तुंगभद्रा नाम नदी के तट पर एक उत्तम नाम का नगर था वहां स्वधर्म का पालन करने वाला सत्य सत्कर्मों में तत्पर समस्त वेदों मैं विशारद स्रोत स्मार्त कर्मों में स्नातक आत्मदेव नामक ब्राह्मण रहते थे वे  धनमान होने पर भी भिक्षावृत्ति से अपना जीवन यापन करते थे उनकी पत्नी का नाम धुंधली था |


धुन्धुम  अज्ञानं कलहं लाति या सा धुन्धली |
जो सदा अज्ञानता के कारण लड़ाई में लगी रहती है वह सुंदरी भी उत्तम कुल में उत्पन्न हुई थी परंतु सदा अपनी ही बात मनवाने में लगी रहती बहुत बोलती घर के कार्य में दक्ष थी परंतु बड़ी कंजूस और झगड़ालू थी इन दोनों पति-पत्नी में संतान की इच्छा से अनेकों धार्मिक कार्य किए परंतु जब संतान नहीं हुई तो आत्म देव दुखी हो गये।  

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एक दिन घर छोड़कर वन में चले आए मध्यान्ह में जब इन्हें प्यास लगी तो वह एक तालाब के किनारे पहुंचे गए उसी समय उन्होंने किसी सन्यासी को आते हुए देखा तो उनके चरणों में प्रणाम किया और लंबी लंबी सांस ले कर रोने लगे सन्यासी ने कहा ब्राह्मण देवता क्यों रो रहे हो तुम्हें कौन सा दुख है मुझसे अपने दुख का वर्णन करो। 

आत्म देव ने कहा महाराज में अपने दुख का क्या वर्णन करूं मेरी कोई संतान नहीं है जिसके कारण मेरे पिता मेरे दिए हुए जलांजलि को चिंताजनक स्वास् से गर्म करके पीते हैं मैंने जो गाय पाली वह भी बध्यां हो  गई जो वृक्ष लगाता हूं उसमें भी फल नहीं लगते और यहां तक जो फल बाजार से खरीद कर लाता हूं वह भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ऐसे जीवन से क्या लाभ इसलिए मैं प्राण त्यागने के लिए वन में आया हूं सन्यासी ने आत्म देव की ललाट की रेखा देखा और कहा |

 Dhundhukari Ki Katha / धुंधुकारी की कथा

सप्तजन्मावधि  तव  पुत्र नैव च नैव च | 
ब्राह्मण देवता इस जन्म में तो क्या अगले सात जन्मो तक तुम्हें कोई संतान सुख नहीं मिलने वाला देखो राजा सगर के 60000  पुत्र थे परंतु उन्हें उन से सुख नहीं मिला इसलिए संतान की कामना का त्याग कर दो और सन्यास ग्रहण कर लो - सन्यासे सर्वदा सुखम् |क्योंकि सन्यास में सब प्रकार का सुख है आत्मदेव ने कहा--

गृहस्थः सरसो लोके पुत्रपौत्र समन्वितः | 
महाराज इस लोक में पुत्रादि से युक्त गृहस्थ आश्रम  ही श्रेष्ठ है आप मुझे संतान दे सकते हैं तो दीजिए अन्यथा मैं आपके चरणों में सर पटक कर अपने प्राण त्याग दूंगा |


दया बिनु संत कसाई दया करी तो आफत आई|
सन्यासी महात्मा ने आत्मदेव के इस दुराग्रह को देखा तो उन्हें एक फल दिया और कहा यह फल अपनी पत्नी को खिला देना यदि वह 1 वर्ष तक सत्य पवित्रता दया और दान इन नियमों का पालन करेगी और एक समय भोजन करेगी तो पुत्र अत्यंत निर्मल स्वभाव का होगा ऐसा कह सन्यासी महात्मा चले गए। 

आत्मदेव वह फल लाकर धुंधली से कहा अरि सुन रही हो देखो आज एक महात्मा का प्रसाद लाया हूं यदि तुम इसे खा लोगी तो हमारे यहां भी संतान की किलकारी गूंजेगी आत्मदेव वह़ फल देकर कहीं चले गए यह धुंधली उस फल को लेकर अपनी सखी के सामने रोने लगी और कहने लगी अरी सखी देखो मेरे पति न जाने कहां से है फल लेकर आए हैं कहते हैं इसे खाने से हमारे यहां संतान हो जाएगी अरे कहीं फल खाने से भी संताने होती है। 

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सखी ने कहा यदि यह बात सत्य हुई तो धुंधली ने कहा यदि यह बात सत्य हो गई तो मेरे उदर में गर्भ हो जाएगा गर्भ से पेट बड जाएगा उस समय कुछ खा भी नहीं सकूंगी तब मेरे शरीर में कमजोरी आ जाएगी जब शरीर में शक्ति ही नहीं रहेगी तो मैं घर का काम कैसे करूंगी और कहीं यदि डाकुओं ने गांव में हमला कर दिया तो मैं भाग भी नहीं पाऊंगी और यदि सुखदेव के समान मेरे गर्भ में ही रह गया बालक तो मेरा तो बिना मौत के मरना निश्चित है। 

संतान उत्पन्न करने में स्त्रियों को बहुत पीड़ा सहनी पड़ती है जब घर में संतान हो जाएगी तो मेरी ननद आ जाएगी और मेरे घर का सारा माल लेकर चली जाएगी संतान का लालन पालन करने में भी बहुत कष्ट उठाना पड़ता है इस प्रकार तर्क-कुतर्क करके उसने वह फल नहीं खाया जब उसके पति आत्मदेव ने पूछा फल खा लिया तो धुंधली ने कहा हां खा लिया। 

एक दिन धुंधली की बहन उसके घर आई बहन ने कहा धुंधली क्या बात है तुम इतने दुखी क्यों हो धुंधली ने सारी घटना कह सुनाई बहन ने कहा धुंधली दुखी मत हो मेरे पेट में गर्भ है तो मेरे पति को बहुत सा धन दे देना और वह अपनी संतान तुम्हें दे देंगे धुंधली ने ऐसा ही किया समय आने पर बहन के यहां एक बालक हुआ उसने अपने पति के हाथों से बालक को धुंधली के यहां पहुंचा दिया। 

 Dhundhukari Ki Katha / धुंधुकारी की कथा

धुंधली ने आत्म देव को सूचना दी कि बालक सुखपूर्वक होगा आत्म देव ने जैसे ही यह सुना पुत्र हुआ है प्रसन्न हो गए ब्राह्मणों को बहुत सा धन दिया बालक का जातकर्म संस्कार किया और जब नाम रखने लगे धुंधली ने कहा 9 महीने तक कष्ट मैंने उठाया है और नाम तुम रखोगे इसका नाम तो मैं ही रखूंगी मेरा नाम धुंधली तो इसका नाम धुंधकारी होगा |

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धुन्धुम कलहं क्लेश करोति कारयति सः सः धुन्धकारी ||
जो स्वयं तो लड़े और दूसरों को भी लड़ाये उसे धुंधकारी कहते हैं 3 माह के पश्चात गाय ने भी एक सुंदर बालक को जन्म दिया जिसका संपूर्ण शरीर मनुष्य के समान था और कान गाय के समान थी इसलिए आत्मदेव ने उसका नाम गोकर्ण रखा। 

गांव वालों ने जब यह सुना गाय ने भी बच्चे को जन्म दिया है सभी उस बालक को देखने आते और कहते आज आत्म देव का भाग्य उदय हुआ है जो गाय ने भी देवता के समान बच्चे को जन्म दिया जब यह दोनों बड़े हुए तो ख्याति तो दोनों ने प्राप्त की |
गोकर्णः पण्डितो ज्ञानी धुन्धकारी महाखलः ||
गोकर्ण महान पंडित हुए और धुंधकारी महान दुष्ट हुआ स्नान नहीं करता अब अपवित्र  रहता मांस मदिरा का भक्षण करता चोरी करता दूसरे के घर में आग लगा देता खेलते हुए निरपराध बच्चों को कुएं में डाल देता इसके इस दुष्ट कर्म को देखा आत्मदेव ने तो इसे समझाने का प्रयास किया परंतु यह क्रोधित हो गया। 

पिता को मारने दौड़ा जिसे आत्मदेव को बहुत कष्ट हुआ वह सोचने लगे कहां जाऊं क्या करूं इसी समय ज्ञानी गोकर्ण जी वहां पधारें और उन्होंने पिता आत्मदेव को वैराग्य का उपदेश किया पिताजी यह संसार सारहीन है या दुख देने वाला है और मोह में डालने वाला है इस संसार में किसका पुत्र और किसका धन सभी स्नेह के कारण निरंतर जल रहे हैं। 

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न चेन्द्रस्य सुखं किचिन्न सुखं चक्रवर्तिनः |
सुखमस्ति विरक्तस्य मुने रेकान्तजीविनः ||
इस संसार में ना तो इंद्र को सुख हैं और ना चक्रवर्ती को सुख है यदि कोई सुखी है तो वह है एकांत जीवी  विरक्त महापुरुष--
दीन कहे धनवान सुखी 
धनवान कहे सुख राजा को भारी 
राजा कहे महाराजा सुखी 
महाराजा कहे सुख इंद्र को भारी |
इंद्र कहे चतुरानन सुखी है 
चतुरानन कहे सुख शिव को भारी
तुलसी जी जान बिचारी कहे 
हरि भजन बिना सब जीव दुखारी ||
संत कहते हैं------
कोई तन दुखी कोई मन दुखी 
कोई धन बिन रहत उदास |
थोड़े थोड़े सब दुखी सुखी राम के दास ||

पिताजी संतान रूपी अज्ञानता का त्याग कर दीजिए और सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइए पिता आत्मदेव ने कहा बेटा वन में जाकर मुझे किस प्रकार का साधन भजन करना चाहिए यह बताने की कृपा करो गोकर्ण जी कहते हैं |

 Dhundhukari Ki Katha / धुंधुकारी की कथा

देहेस्थिमासं रूधिरेभिमतिं त्यजत्वं 
       जाया सुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च |
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगुनिष्ठं 
       वैराग्यराग रसिको भव भक्तिनिष्ठः ||
धर्मं भजस्व सततं त्यजलोकधर्मान्
        सेवस्य साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम |
अन्यस्य दोषगुण चिन्तनमासु मुक्त्वा
       सेवाकथारसमहो नितरां पिबत्वम्  ||
पिताजी यह शरीर अस्थि मांस और रुधिर का पिंड है इसे आपने जो अपना मान रखा है इसमें आपने जो मैं बुद्धि कर रखी है उसी को छोड़ दीजिए इस संसार को अहिर्निष  क्षणभंगुर मानिए और ज्ञान राग के रसिक होकर भक्ति में नष्ट हो जाइये क्योंकि--
भोगेरोभयं कुले च्युति भयं वित्ते नृपालाद भयं
मौने दैन्य भयं बलेरिपु भयं रूपे जराया  भयं |
शास्त्रे वाद भयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं 
सर्वं वस्तु भयावहम् भुविनृणां वैराग्यमेवा भयं ||

संसार में जितने भी पदार्थ हैं सब भय देने वाले हैं यदि भोग है तो उसमें रोग का भय है कुलीनता है तो उसमें पतन होने का भय है धन है तो राजा का भय है मौन मे दैन्यता का भय है बल होने पर शत्रु का भय है अच्छा रूप है तो वृद्धावस्था का भय है शास्त्रज्ञ है तो वाद विवाद का डर है गुण है तो दुष्टो  का भी है और शरीर है तो मृत्यु का भय हैं इस संपूर्ण संसार में ही भय व्याप्त है एक मात्र अभय प्रदान करने वाला बैराग यही है। 

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इसलिए पिताजी वैराग्य राग के रसिक होकर भक्ति में निष्ठ  हो जाइए लौकिक धर्मों को त्याग कर भगवत भजन रूपी धर्म का आश्रय लीजिए काम तृष्णा से रहित हो साधु पुरुषों की सेवा कीजिए दूसरों के गुण और दोषों का चिंतन करना छोड़ दीजिए और भगवान की कथा रूपी अमृत का पान कीजिए गोकर्ण जी के उपदेशों को सुनकर पिता आत्मदेव ने घर छोड़ दिया और वन में चले गए। 

वहां भगवान की सेवा करते और भागवत के दशम स्कंध का पाठ करते भगवान की सेवा  के प्रभाव से अंत में उन्होंने भगवान को प्राप्त कर लिया |    बोलिए श्री कृष्ण चंद्र भगवान की जय

पिता के वन चले जाने पर एक दिन धुंधकारी ने अपनी माता धुंधली को पीटा और कहा बताओ धन कहां छुपा कर रखा है यदि नहीं बताओगी तो जलती हुई लकड़ियों से पीटूंगा पुत्र के इस कर्मों से माता धुंधली अत्यंत दुखी हो गई और रात्रि में कुएं में कूदकर प्राण त्याग दिया। 

माता की मृत्यु के पश्चात गोकर्ण जी तीर्थ यात्रा में निकल गए यहां धुंधकारी स्वच्छंद हो गया घर में पांच पांच वेश्याओं को ले आया उनके पालन पोषण के लिए वह अत्यंत उग्र कर्म करता एक दिन उन्होंने आभूषणों की इच्छा प्रकट की धुंधकारी चोरी करके बहुत से वस्त्र आभूषण ले आया। 

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उन वस्तुओं को देखो उन्हों ने विचार किया यह चोरी करता है एक ना एक दिन तक यह पकड़ा जाएगा और राजा सारा धन छीन लेगा और इसे मृत्युदंड दे देगा मरना तो इसका निश्चित ही है क्यों ना हम ही इसे मार दें उन्होंने रात्रि में सोते हुए धुंधकारी को बांध दिया गले में उसके फांसी का फंदा डालकर मारने लगी परंतु जब वह नहीं मारा तो घबरा गई और जलते हुए अंगारे उसके मुंह में ठूंस दिया आज धुंधकारी सोचने लगा |


सुधामयं वचो यासां कामिनां रसवर्धनम् |
ह्रदयं क्षुरधराभां प्रियः के नामयोषिताम् ||
स्त्रियों की वाणी तो अमृत के समान कमियों के हृदय में रस का संचार करती है किंतु ह्रदय छूरे की धार के समान तीक्ष्ण होता है भला इन स्त्रियों का कौन प्यारा होता है और तड़प तड़प कर धुंधकारी का प्राणांत हो गया उन्होंने वही गड्ढा खोदकर धुंधकारी को गाड़ दिया और धन लेकर जहां तहां निकल गई कुछ समय पश्चात जब गोकर्ण जी ने धुंधकारी की मृत्यु का समाचार सुना दो अनाथ जानकर गया जी में उसका श्राद्ध किया और जिस जिस तीर्थ में जाते वहां उसका श्राद्ध करते। 

एक बार घूमते-घूमते गोकर्ण जी अपने नगर में पधारे रात्रि का समय था संत थे उन्होंने सोचा मेरे कारण किसी को कष्ट ना हो इसलिए सीधे घर में आकर सो गये मध्य रात में धुंधकारी अपना विकराल रूप दिखाने लगा कभी वह भेणा बन  जाता कभी हाथी बन जाता कभी भैसा बन जाता कभी राज़ा तो कभी अग्नि के रूप में प्रकट हो जाता उसे देख गोकर्ण जी समझ गए या कोई दुर्गति को प्राप्त जीव है। 

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गोकर्ण जी ने पूछा तुम कौन हो इस गति को कैसे प्राप्त हुये और ऐसा भयानक रूप क्यों दिखा रहे हो गोकर्ण जी के इस प्रकार पूछने पर धुंधकारी जोर जोर से रोने लगा कुछ बोल नहीं सका तथा इशारा करने लगा तब गोकर्ण जी ने हाथ में जल ले उसे गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित किया और धुंधकारी पर छिड़क दिया जिससे धुंधकारी को बोलने की शक्ति प्राप्त हुई और उसने कहा--
अहं भ्राता त्वदीयोस्मि धुन्धकारीति नामतः |
स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाशितं मया ||
भैया मैं तुम्हारा भाई धुंधकारी हूं अपने दोष के कारण मैंने अपने ब्रम्हणत्व को नष्ट कर दिया मेरे कुकर्मो की कोई संख्या नहीं है जिसके कारण में प्रेतयोनि को प्राप्त हुआ हूं वायु का आहार करके जीवन यापन कर रहा हूं |
अहो बन्धोकृपासिन्धु भ्रातर्यामाशु मोचय |
हे भाई आप कृपा के सागर हैं मुझे इस योनि से मुक्त कराओ गोकर्ण जी ने कहा धुंधकारी मैंने तुम्हारे लिए गया में श्राद्ध किया था फिर भी तुम्हारी मुक्ति क्यों नहीं हुई धुन्धकारी ने कहा भैया मैंने इतने पाप किए हैं कि सैकड़ों गया श्राद्ध से भी मेरी मुक्ति नहीं होगी इसलिए आप कोई दूसरा उपाय कीजिए गोकर्ण जी ने कहा इस समय तुम अपने स्थान को जाओ मैं तुम्हारी मुक्ति के विषय में विचार करूंगा।

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 प्रातः काल नगरवासियों से विद्वानों से गोकर्ण जी ने रात्रि में घटी घटना का वर्णन किया और धुंधकारी की मुक्ति के विषय में उपाय पूछा जब विद्वानों का कोई एक मत नहीं हुआ तो गोकर्ण जी ने अपने योगबल से सूर्य भगवान की गति को रोक दिया उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की----
तुभ्यं नमो जगत्साक्षिन् ब्रूहि मे मुक्तिहेतुकम् |

हे जगत के साक्षी भगवान सूर्यनारायण आपको मेरा प्रणाम है बताइए धुंधकारी की मुक्ति कैसे होगी भगवान सूर्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा--

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श्रीमद्भागवतान्मुक्तिः सप्ताहं वाचनं कुरू |
गोकर्ण जी आप श्रीमद् भागवत की सप्ताह कथा कहिए इसी से धुंधकारी की मुक्ति होगी भगवान सूर्य नारायण के इस प्रकार कहने पर गोकर्ण जी एक वैष्णव ब्राह्मण को प्रधान श्रोता बनाया सुनने के लिए और भागवत की कथा प्रारंभ की धुंधकारी कथा सुनने के लिए आया परंतु वायु रूप होने के कारण एक स्थान पर ठहर नहीं पा रहा था।

तब उस को एक साथ गांठ वाला बांस दिखाई दिया उसी में प्रविष्ट हो वह कथा सुनने लगा प्रथम दिन की कथा जब विश्राम हुई तो जोर का शब्द करते हुए बांस की एक गांठ फट गई दूसरे दिन दूसरी तीसरे दिन तीसरी !
एवं सप्तदिनैश्चैव सप्तगृन्थिविभेदनम् |

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इस प्रकार 7 दिनों में 7 गांठो  का भिवेदन कर दिव्य रूप धारण कर धुंधकारी प्रकट हो गया उसके गले में सुंदर तुलसी की माला शोभायमान हो रही थी उसने पीतांबर धारण कर रखा था मेघ के समान सुंदर श्यामल वर्ण सर में मुकुट कानों में कुंडल सुशोभित हो रहे थे उसने गोकर्ण जी के चरणों में प्रणाम किया और कहा----
धन्या भागवती वार्ता प्रेतपीडा विनाशिनी |
सप्ताहोपि तथा धन्यः कृष्णलोकफलप्रदः ||

भैया यह भागवत की कथा धन्य है यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली है और भागवत की सप्ताहिक कथा तो साक्षात श्री कृष्ण का धाम प्रदान करने वाली है जैसे अग्नि गीली सूखी छोटी-बड़ी समस्त लकड़ियों को जलाती है उसी प्रकार भागवत सप्ताह सुनने से मन वचन और कर्म के द्वारा किए हुए छोटे बड़े नए पुराने समस्त पाप जलकर भस्म हो जाते हैं।

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जो अन्य प्रातः काल पकाया जाता है वह सायं काल खराब हो जाता है जो अन्य सायं काल पकाया जाता है वह प्रातः काल खराब हो जाता है तो उसी अन्य के रस से पुस्ट हुए शरीर की नित्यता का वर्णन क्या करें |
बुदबुदा इव तोयेषु मशका इव जन्तुषु |
जायन्ते मरणायैव कथाश्रवणवर्जिताः ||
जो श्रीमद् भागवत की कथा नहीं सुनते वे पानी में उठने वाले बुलबुले और जंतुओं में मच्छरों के समान मात्र मरने के लिए ही उत्पन्न हुए हैं|

जिस भागवत के सुनने से जड़ बांस की गांठ फट सकती है तो उससे चित्र की गांठ खुल जाए इसमें क्या आश्चर्य है धुंधकारी इस प्रकार बोल ही रहा था कि 1 दिव्य विमान आ गया सबके देखते ही देखते धुंधकारी उस विमान में चढ़ गया विमान में आए पार्षदों को देख कर गोकर्ण जी ने कहा--
अत्रैव बहवः सन्ति श्रोतारो मम निर्मलाः |
आनीतानि विमानानि न तेषां युग यत्कुतः ||
यहां बहुत से निर्मल श्रोता है जिन्होंने भागवत कथा सुनी है फिर सबके लिए एक साथ विमान क्यों नहीं आए भगवान के पार्षदों ने कहा--
श्रवणस्य विभेदेन फलभेदोत्र संस्थितः |
श्रवणं तु कृतं सर्वै र्न तथा मननंकृतम् ||
गोकर्ण जी श्रवण के भेद के कारण ही ए फल में भेद हुआ है श्रवण तो सब ने किया परंतु जिस प्रकार धुंधकारी ने मनन किया उस प्रकार किसी और ने मनन नहीं किया आप पुनः भागवत की कथा कहें यदि ये श्रोता श्रद्धा पूर्वक भागवत की कथा सुनेंगे तो सबके लिए विमान आएंगे वह करण जी ने पुनः श्रावण मास में भागवत की कथा कहीं और कथा की समाप्ति पर भगवान श्रीहरि अनेकों विमानों के साथ प्रकट हो गए और अपना पांचजन्य शंख बजाया तथा गोकर्ण जी को हृदय से लगा लिया |
आयोध्यावासिनः पूर्वं यथा रामेण संगताः |
तथा कृष्णेन ते नीता गोलोकंयोगिदुर्लभम् ||
और जैसे त्रेता युग में समस्त अयोध्यावासी भगवान श्री राम के साथ साकेत धाम चले गए थे उसी प्रकार कथा सुनने से समस्त श्रोता गणों को गोलोक धाम की प्राप्ति हुई l
   ( बोलिए श्री कृष्ण चंद्र भगवान की जय )

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