अर्थानामीशिषे त्वं /arthana mishishe tvam shloka vairagya
अर्थानामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीश्महे यवदर्थं
शूरस्त्वं वादिदर्पज्वरशमनविधावक्षय पाटवं नः!
सेवन्ते त्वां धनाढ्या मतिमहलहतये मामपि श्रोतुकामा
मय्यप्यास्था न चेत्तत्वयिमम नितरामेवराजन्गतोऽस्मि ॥२९॥
हे राजन् ! यदि धन पर तेरा प्रभुत्व है तो साथ के शब्दों पर मेरा प्रभुत्व है, यदि तू शूर है तो हम भी बाँदियों के घमण्डरूपी ज्वर को नाश करने में प्रवीण हैं, यदि धनी लोग आपके सेवक हैं तो बुद्धि की मलीनता को दूर करने के लिए शास्त्र श्रवण की इच्छा रखने वाले मेरे भी सेवक हैं, इस तरह हमारे और आप में कोई अन्तर न रहने पर भी यदि हम पर तुम्हारी श्रद्धा नहीं है तो तुम पर हमारी भी श्रद्धा नहीं है, इसलिए, लो हम जाते हैं।