F स जातः कोऽप्यासीन् /sa jata kopyasin shloka vairagya - bhagwat kathanak
स जातः कोऽप्यासीन् /sa jata kopyasin shloka vairagya

bhagwat katha sikhe

स जातः कोऽप्यासीन् /sa jata kopyasin shloka vairagya

स जातः कोऽप्यासीन् /sa jata kopyasin shloka vairagya

 स जातः कोऽप्यासीन् /sa jata kopyasin shloka vairagya

स जातः कोऽप्यासीन् /sa jata kopyasin shloka vairagya


स जातः कोऽप्यासीन्मदनरिपुणा मूर्धिनधवलं

कपालं यस्योच्चैर्विनिहितमलङ्कारविधये।

नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना

नमद्भिः कः पुन्सामयमतुलदर्प ज्वरभरः ॥२८॥

ऐसा भी कोई सफलजन्मा मनुष्य उत्पन्न हुआ था जिसके शुभ कपाल को कामदेव के शत्रु भगवान् शंकर ने अपनी शोभा के लिए मस्तक पर धारण किया था, इतनी बड़ी उपयोगिता मनुष्य के अंग की होने पर भी उसको तनिक भी अभिमान न था परन्तु इस समय लोग अपने तुच्छ प्राणों की रक्षा कर इतने अभिमान ग्रस्त हो गये हैं जिसका कोई ठिकाना नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि मरने के बाद भी जिसका कपाल आदरपूर्वक मस्तक जैसे ऊँचे स्थान पर रखा जाता है उसी पुरुष का जन्म सफल है और बाकी पुरुषों का जन्म निष्फल है

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 स जातः कोऽप्यासीन् /sa jata kopyasin shloka vairagya

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