आसंसारात् त्रिभुवन /asansarat tribhuvan shloka vairagya
आसंसारात् त्रिभुवनमिदं चिन्वत्तां तात
तादृड्नैवास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवागतो वा।
योऽयं धत्ते विषयकरिणोगाढगूढाभिमानक्षीवस्यान्तः
करणकरिणः संयमानायलीलाम्॥४२॥
हे पिता! सृष्टि के आरम्भ से मैंने सारा संसार छान डाला, पर न ऐसा कोई सुनने में आया, न देखने में आया जो विषयरूपी हथिनी में अति रूढ़ और गूढ़ अभिमान से उन्मत्त अन्त:करणरूपी हाथी को समयरूपी रस्सी पे रोक ले।