अवश्यं यातारश्चिर /avashyam yatarashchira shloka vairagya
अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया
वियोगे को भदस्त्यजति न मनो यत्स्वयममून्।
व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः
स्वयंत्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति॥१६॥
चिरकाल तक भोग किये विषय एक न एक दिन अवश्य ही भोगने वाले को छोड़ते हैं, तब यदि उन्हें स्वयं ही छोड़ दिया जाय तो क्या हानि? फिर भी इनको हम छोड़ने को तैयार नहीं। मनुष्यों को चाहिए कि वे इनको स्वयं छोड़ दें। अपनी इच्छा से विषयों का त्याग करने पर अत्यन्त सुख प्राप्त होता है और यदि विषयों ने छोड़ा तो बड़ा सन्ताप होता है।