भक्तिर्भवे मरण /bhaktirbhave maran shloka vairagya
भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं
स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः।
संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता
वैराग्यमस्ति किमितः परमार्थनीयम्॥६२॥
भगवान् शंकर में भक्ति हो, संसार में जन्म लेने और मरने का हृदय में भय न होता हो, अपने भाई-बन्धु और रिश्तेदारों में प्रेम न हो, संसर्गदोष से रहित निर्जन बन में निवास हो, मन में कामजन्य विकार न हो तो इससे बढ़कर प्रार्थनीय और दूसरा वैराग्य ही कौन है।