तस्मादनन्तमजरं /tasmad nant majram shloka vairagya
तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि
तद् ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः।
यस्यानुषंगिण इमे भुवनाधिपत्य
भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति ॥६३॥
इसलिए अनन्त, वार्धक्य आदि अवस्थात्रय से रहित, अत्यन्त देदीप्यमान परब्रह्म का चिन्तन करो, इन सब मिथ्याभूत पदार्थों की चिन्ता से क्या लाभ? ब्रह्म के ही आश्रय में आधीन रहने वाले भुवनाधिपत्य, भोग-विलास, आदि उनके ही योग्य हुआ करते हैं जिनमें ब्रह्मविचार का प्रेम नहीं रहता।