पातालमाविशसि /patal mavishasi shloka vairagya
पातालमाविशसि यासि नभो विलंघ्य
दिड्तण्डलं भ्रमसि मानसचापलेन॥
भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथमात्मनीनं
तद् ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन॥६४॥
रे मन! तू अपने चाञ्चल्य से कभी तो पाताल में घुस जाता है, कभी तो ऊँचे-से-ऊँचे आकाश तक को पार कर जाता है, कभी सब दिशाओं का चक्कर काट आता है, जब जहाँ के विषय की लालसा होती है, तब वहाँ पहुँच जाते हो, परन्तु भ्रम से भी कभी निर्मल और आत्म हितकारी उस परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन क्यों नहीं करता जिससे यथार्थ सुख प्राप्त होता है।