रात्रिः सैव पुनः /ratri saiva punah shloka vairagya
रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वाऽबुधाः जन्तवो
धावन्त्यु द्यमिनस्तथैव निभृत प्रारब्धतत्तत्क्रियाः।
व्यापारः पुनरुक्तभूतविषयरेवंविधेनाऽमुना
संसारेण कदर्थिताः कथमहो मोहान्न लज्जामहै॥६५॥
वही पूर्वानुभूत रात्रि है और वही पूर्वानुभूत दिवस है, इस बात को संसारी अच्छी तरह जानते हैं फिर भी पहले से प्रारब्ध कर्म को पूर्ण करने के लिए उन्हीं व्यापारों को करने में लीन रहा करते हैं जिनको कि वे पहले से करते आये हैं। इस प्रकार के इस संसार से निन्दा के पात्र हम अज्ञान के कारण लज्जित नहीं हो रहे हैं?