भिक्षाशनं तदपि /bhikshashanam tadapi shloka vairagya
भिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवारं
शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रम्।
वस्त्रं जीर्णशतखण्डमयी च कन्था
हा हा तथापि विषयान्न परित्यजन्ति ॥१८॥
भीख माँगकर खाना वह भी रूखा-सूखा और एक बार, सोना भी पृथ्वी पर ही, परिवार भी अपना शरीर ही, पुरानी फटी गुदड़ी ही कपड़ा, इस तरह की अवस्था में रहते हुए भी मनुष्य विषय-वासना को नहीं छोड़ते, आश्चर्य है!