भिक्षाशी जनमध्य /bhikshashi janmadhya shloka vairagya
भिक्षाशी जनमध्यसङ्गरहितः स्वायत्तचेष्टाः सदा
दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः
रथ्याकीर्णविशीर्णजीर्णवसनः सम्प्राप्तकन्थाधरो
निर्मानी निरहंकृतिः शमसुखभोगैकबद्धस्पृहः॥७३॥
भिक्षान्न मात्र के भोजन से शरीर की रक्षा करने वाले, जन समुदाय में आसक्ति रहित, सदा अपनी इच्छानुसार विहार-निरत, त्यागने योग्य वस्तु के त्यागने में और ग्रहण करने योग्य वस्तु के ग्रहण करने में तत्पर, मार्ग में फेंके हुए फटे पुराने कपड़ों को ही उपयोग में लाने वाले, कथरी का ही आसन बनाकर उस पर बैठने वाले, शान्तिरूप सुख के भोग में ही एकमात्र लौ लगाये हुए; अतएव मान और अहंकार रहित बिरले ही कोई योगी महात्मा हुआ करते हैं।