रम्याश्चन्द्रमरीच /ramyas chandra marich shloka vairagya
रम्याश्चन्द्रमरीचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थली
रम्यं साधुसभायमोद्वसुखं काव्येषु रम्याः कथाः।
कोपोपाहितवाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं
सर्व रम्यमनित्यतामुप गते चित्ते न किञ्चित्पुनः॥७२॥
चन्द्रमा की किरणें रम्य हैं, वनस्थली भी हरे-हरे घासों से सुहावनी मालूम पड़ती है, सत्संग से उत्पन्न सुख भी रम्य ही है, काव्यों की कथाएँ भी रमणीय हैं, प्रणय कोप के कारण उत्पन्न आँसुओं से चंचल प्रिया का मुख भी सुन्दर है। ऐसा नहीं, ये सभी चीजें रम्य ही हैं, पर “संसार अनित्य है" इस ज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर वह सब कुछ भी नहीं है अर्थात् यह सारा संसार असार-सा प्रतीत होता है।