F भ्रान्तं देशमनेकदुर्ग /bhrantam desha maneka shloka niti - bhagwat kathanak
भ्रान्तं देशमनेकदुर्ग /bhrantam desha maneka shloka niti

bhagwat katha sikhe

भ्रान्तं देशमनेकदुर्ग /bhrantam desha maneka shloka niti

भ्रान्तं देशमनेकदुर्ग /bhrantam desha maneka shloka niti

 भ्रान्तं देशमनेकदुर्ग /bhrantam desha maneka shloka niti

भ्रान्तं देशमनेकदुर्ग /bhrantam desha maneka shloka niti

भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्त न किञ्चित्फलं

त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला।

भुक्तं मानविवर्जिते परगृहे साशङ्कया काकवतृष्णे।

दुर्गतिपापकर्मनिरते नाऽद्यापि सन्तुष्यसि॥५॥

मैंने आजतक बड़े-बड़े कठिन देशों में भ्रमण किया पर उससे कोई फल न मिला। अपनी जाति और कुल के अभिमान को त्याग कर जिनकी सेवा नहीं करनी थी, उसे भी किया पर वह भी व्यर्थ हुई। अपने मानापमान का विचार न करते हुए दूसरों के घर कौआ की तरह भोजन भी किया पर पापकर्म में प्रवृत्त, हे तृष्णे! इतने पर भी तू संतुष्ट नहीं हुई।

वैराग्य शतक के सभी श्लोकों की लिस्ट देखें नीचे दिये लिंक पर क्लिक  करके।
 -click-Vairagya satak shloka list 

 भ्रान्तं देशमनेकदुर्ग /bhrantam desha maneka shloka niti

Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3