भ्रान्तं देशमनेकदुर्ग /bhrantam desha maneka shloka niti
भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्त न किञ्चित्फलं
त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला।
भुक्तं मानविवर्जिते परगृहे साशङ्कया काकवतृष्णे।
दुर्गतिपापकर्मनिरते नाऽद्यापि सन्तुष्यसि॥५॥
मैंने आजतक बड़े-बड़े कठिन देशों में भ्रमण किया पर उससे कोई फल न मिला। अपनी जाति और कुल के अभिमान को त्याग कर जिनकी सेवा नहीं करनी थी, उसे भी किया पर वह भी व्यर्थ हुई। अपने मानापमान का विचार न करते हुए दूसरों के घर कौआ की तरह भोजन भी किया पर पापकर्म में प्रवृत्त, हे तृष्णे! इतने पर भी तू संतुष्ट नहीं हुई।