उत्खांत निधिशङ्कया /utkhanta nidhi shankaya shloka niti
उत्खांत निधिशङ्कया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो
निस्तीर्णः सरितां पतिनृपतयो यत्नेन सन्तोषिताः।
मन्त्राराधनतत्परेण मनसा नीताः स्मशाने निशा:
प्राप्तः काणवराटकोऽपिन मया तृष्णेऽधुना मुञ्चमाम्॥४॥
हे तृष्णे! अब तो मुझे छोड़, अरी मैंने तेरे चक्कर में पड़कर खजाने की खोज की इच्छा से सारी पृथ्वी छान डाली, रसायन सिद्धि के फेर में पड़कर पर्वतीय समस्त धातुओं को फूंक डाला, धन की इच्छा से समुद्र को भी पार किया, मन्त्रों को जगाने के लिए शमशान में अनेक रात्रियाँ व्यतीत की पर आजतक एक कानी कौड़ी भी हाथ नहीं लगी।
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वैराग्य शतकम् - vairagya satakam