प्रेरक प्रसंग / शुकदेव जी की ज्ञान-प्राप्ति

 प्रेरक प्रसंगशुकदेव जी की ज्ञान-प्राप्ति

प्रेरक प्रसंग / शुकदेव जी की ज्ञान-प्राप्ति


व्यासजी के पुत्र शुकदेव जन्म से ही संसार-विरक्त थे। फिर भी उन्हें अपने इस ज्ञान के लिए उपदेश देने वाले गुरु की आवश्यकता थी।


उनके पिता व्यास जी ने अन्तिम उपदेश प्राप्त करने के लिए उन्हें राजा जनक के सान्निध्य में जाने का निर्देश दिया। राजा जनक को शुकदेव के पहुँचने से पहले ही ज्ञात हो गया था कि शुकदेव उनसे अन्तिम ज्ञान प्राप्त करने के लिए आने वाले हैं।


शुकदेव जाकर राजभवन के द्वार पर खड़े हो गये। भवन के द्वाररक्षको ने शुकदेव की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया।


जब वहाँ बहुत देर खड़े-खड़े ही हो गई तो द्वार के बाहर उनके लिए एक आसन डाल दिया गया। वह उस आसन पर बैठ गये।

 प्रेरक प्रसंग / शुकदेव जी की ज्ञान-प्राप्ति

किसी ने उनसे यह तक नहीं पूछा कि वे कहाँ से आये हैं और यहाँ किस काम से किससे मिलना है। पर शुकदेव तो वीतरागी थे, अतः उन पर इस व्यवस्था का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।


उन्हें न तो क्रोध 'आया और न ही किसी प्रकार की खुशी हुई। निर्विकार भाव से वहाँ बैठे रहे।

तीन दिन इसी तरह बैठे बीत गये।


तब एक मंत्री आकर उन्हें राजभवन में ले गये। दस दिन तक उन्हें वे सभी सुविधायें मिलती रहीं जो राजभवन में मिलनी चाहिए थीं।


लेकिन इसका भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उनके स्वभाव में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

 dharmik drishtant / दृष्टान्त महासागर


इसके बाद उन्हें लोग राजा जनक के दरबार में ले गये। संगीत की व्यवस्था करके उनका सम्मान किया गया। राजा जनक ने उन्हें दूधसे लबालब भरा कटोरा दिया।


इसके साथ ही यह निर्देश भी दिया कि इस कटोरे को लेकर सभा-भवन के सात चक्कर लगायें, पर यह ध्यान रहे कि कटोरे में से दूध की एक भी बूंद न छलके।


शुकदेव ने निर्देश के अनुसार सभा-भवन के सात चक्कर लगा दिये और दूध की एक भी बँद उसमें से नहीं छलकी। कटोरा उन्होंने राजा जनक को सौंप दिया।


राजा जनक ने प्रसन्न होकर कहा-“वत्स! तुम्हारी शिक्षा पूरी हो चुकी हैं। तुम अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।


तुमने जो शिक्षा अपने पिता व्यास जी से प्राप्त की है और जो कुछ स्वयं सीखा है, वह पर्याप्त है। तुमने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है। मोह से तुम मुक्त हो।


क्रोध तुमसे दूर रहता है और. अहंकार का लेश भी तुम्हारे अन्दर नहीं है। तुमने अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में एकाग्रचित्त से रहना सीख लिया है।"


क्षणभर मौन रहकर राजर्षि ने कहा-“वत्स! वास्तव में कोई गुरु किसी को सिखाता नहीं है, हम सबको स्वयं सीखना होता है।

गुरु का काम तो केवल संकेत देना ही होता है। अतः अब तुम घर जाओ। तुमने अपने मन पर अधिकार करने की शक्ति प्राप्त कर ली है। यही सच्चा ज्ञान है।"

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