धार्मिक ग्रंथों की कहानी /परमात्मा पर भरोसा

 धार्मिक ग्रंथों की कहानी /परमात्मा पर भरोसा

धार्मिक ग्रंथों की कहानी /परमात्मा पर भरोसा

एक मंदिर था बड़ा भव्य। उस मंदिर के पुजारी थे पं. धर्मदास। उनको परमात्मा पर पूरा भरोसा था। अतः वह अगले दिन के भरण-पोषण और व्यय की भी कोई चिन्ता नहीं करते थे।


प्रतिदिन मंदिर में जो भी चढ़ावा आता, उसमें से अपनी आवश्यकता-भर सामग्री ले लेते और शेष बचे हए पैसे और सामग्री बाँट देते थे।


रात में पूरा परिवार संग्रह-मुक्त होकर सोता था। दूसरे दिन फिर नये सिरे से दान-दक्षिणा प्राप्त हो जाती और निर्वाह योग्य सामग्री रखकर शेष सब बाँट दी जाती थी।


अनेक वर्षों तक यही क्रम चलता रहा। कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं रहा। पर कहते हैं न कि-

सबै दिन रहत न एक समान।

 धार्मिक ग्रंथों की कहानी /परमात्मा पर भरोसा


धर्मदास एक दिन बीमार हो गये। उस दिन भी मंदिर से जो कुछ प्राप्त हुआ, उनकी पत्नी ने नियमानुसार सब बाँट दिया।


पर उसने सोचा, पति बीमार हैं, यदि रात-बिरात बीमारी बढ़ने पर किसी औषधि की आवश्यकता हुई तो बिना पैसे के कैसे आ सकेगी। हाले हाल किससे माँगेंगी? इस पर वह बहुत देर विचार करती रही और अन्ततः उसने पाँच रुपये अपने पास रख लिये। पूरा परिवार खा-पीकर सो गया।


जब काफी रात बीत गई तो धर्मदास की बेचैनी बढ़ने लगी। जब वह बहुत बेचैन हो गये तो उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा-“कहीं आज के चढ़ावे में से तुमने कुछ बचाकर तो नहीं रख लिया!


मेरी साँस अटक रही है। ऐसा लग रहा है कि मैं परमात्मा से बिछुड़ गया हूँ। मेरे और उनके बीच की दूरी बढ़ गई है।"


यह सुना तो पत्नी जो पहले ही घबराई हुई थी, उसने सच-सच बता दिया-"क्षमा करना, मैंने पाँच रुपये बचा लिये हैं।"


धर्मदास पत्नी के सत्य से प्रभावित हुए। उन्होंने पत्नी को समझाते हुए कहा-“अरी बावली! जीवनभर मेरे साथ रही हो, फिर भी यह नहीं समझ पाई कि जो भरी दोपहरी में देता है वह आधी रात में क्यों नहीं दे सकता।

 dharmik drishtant / दृष्टान्त महासागर


उसे देने में क्या परेशानी हो सकती है! ... जरा बाहर जाकर देखो, द्वार पर एक भिक्षुक खड़ा है।"


धर्मदास की पत्नी ने द्वार खोला तो देखा सच ही एक भिखारी खड़ा है। भिखारी बोला- “मैं रास्ता भटक गया हूँ। रास्ते में डाकुओं ने मेरा सामान छीन लिया है। अगर मुझे पाँच रुपये मिल जायें तो मैं अपने गाँव पहुँच जाऊँ।"


धर्मदास की पत्नी ने बचाकर रखे हए पाँच रुपये उस भिखारी को दे दिये। धर्मदास ने चादर ओढ़ी और शरीर त्याग दिया। आगे अब उनके और परमात्मा के बीच कोई बाधा नहीं रही।

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