शिक्षाप्रद धार्मिक कहानी -पर-हित-साधन

 शिक्षाप्रद धार्मिक कहानी -पर-हित-साधन

शिक्षाप्रद धार्मिक कहानी -पर-हित-साधन


एक बार महाराज युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया। जब यज्ञ सम्पन्न हो गया तो दूर-दूर से आये ऋषियों को भरपूर दान देकर सम्मानित किया।


सब विद्वान् प्रसन्नता के साथ अपने घर लौट गये। जो लोग वहाँ रह गये, वे इस यज्ञ की सफलता से अत्यन्त प्रसन्न थे। यज्ञ की सफलता की प्रशंसा कर रहे थे।


उसी समय कहीं से एक नेवला वहाँ आ गया। उसका आधा शरीर सुनहरा था जबकि शेष भाग ऐसा ही था जैसा नेवले का सामान्यतः होता है। उसे देखकर सब आश्चर्य में पड़ गये।

 शिक्षाप्रद धार्मिक कहानी -पर-हित-साधन

नेवले ने अचानक ही मनुष्य की बोली में कहा-“यह ठीक है कि इस यज्ञ में अनन्त दान दिया गया है। यज्ञ पूर्ण विधि-विधान से ही हुआ है।


इससे बहुत से यश और पुण्य की प्राप्ति भी हुई है। फिर भी इस यज्ञ में वैसा प्रभाव देखने को नहीं मिला जैसा उस निर्धन ब्राह्मण के यज्ञ में था।"


नेवले की बात ने उपस्थित जनों का कुतुहल बढ़ा दिया। उन्होंने नेवले से पूछा-“तुम जिस यज्ञ के बारे में बात कर रहे हो, उसके बारे में हमें कुछ बताओ। यह भी बताओ कि तुम्हारे शरीर का आधा भाग सुनहरा और शेष सामान्य नेवले जैसा क्यों है?"


नेवले ने बताया- “मैं जहाँ से आ रहा हूँ, वहाँ एक ब्राह्मण परिवार रहता था। परिवार में केवल चार प्राणी थे-ब्राह्मण, उनकी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू।


परिवार पूर्णतया निर्धन था। फसल काटते समय फसल के जो दाने खेत में गिर जाते हैं, उन्हीं से उनके परिवार की क्षुधा-शान्ति होती थी। अब उस जगह अकाल पड़ गया है।


वे ब्राह्मण अतिथि को भगवान मानकर उनका सत्कार किया करते थे। वर्षों से वह इस परम्परा को निभाते आ रहे थे। लेकिन अकाल के कारण उन्हें प्राय: कई-कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता था।


एक दिन उन्हें कहीं से थोड़ा-सा सत्तू मिल गया। उनकी पुत्रवधू ने उस सत्तू को पाँच भागों में बाँट दिया। एक भाग भगवान को अर्पित करके शेष चार भाग चारों के सामने रख दिये।


वे चारों खाना शुरू करने वाले थे कि अचानक द्वार पर एक भिखारी दिखाई पड़ा। उसके शरीर को देखकर ऐसा लग रहा था कि कई दिनों से उसने कुछ भी खाया नहीं है।


ब्राह्मण ने सम्मानपूर्वक उसे बिठाया और अपना सत्तू उसे दे दिया। भिखारी ने प्रसन्न होकर सत्तू खा तो लिया पर उसकी भूख शान्त नहीं हुई।

 dharmik drishtant / दृष्टान्त महासागर


ब्राह्मण की पत्नी ने जब यह देखा तो अपने भाग का सत्तू भी दे दिया। इसी प्रकार क्रमशः उनके पुत्र और पुत्रवधू ने भी अपने भाग का सत्तू उस भिक्षुक की थाली में डाल दिया। परिणाम यह हुआ कि वह पूर्ण रूप से तृप्त हो गया।


भिक्षुक आशीर्वाद देकर चला गया तो मैं वहाँ पहुँचा। उस धरती पर गिरे हुए पवित्र अन्न-कणों के साथ मेरे शरीर का स्पर्श हो गया।


तत्काल मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया। तब से मैं निरन्तर इस आशय से घम रहा हूँ कि मेरा शेष आधा भाग सुनहरा हो जाये। जहाँ कहीं भी कोई यज्ञ-अनुष्ठान होता है, मैं वहाँ जाता हूँ।


इस यज्ञ की भी मैंने बहुत प्रशंसा सुनी थी। पर यहाँ आकर भी मेरा शरीर सुनहरा नहीं हुआ। इससे यह बात पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है कि इस यज्ञ का महत्त्व उस निर्धन बाह्मण के यज्ञ से कम ही है।


नेवले की इस बात को सुनकर सभी रोमांचित हो गये और कहने लगे-“वास्तव में वे ही जन श्रेष्ठ हैं जो स्वयं भूखे रहकर अतिथि को सम्मान के साथ भोजन कराते हैं।"


तनु पवित्र सेवा किये, धन पवित्र कर दान।

मन पवित्र हरि भजन से, होत त्रिविध कल्यान॥

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