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नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ -प्रभु की माया कैसी है?

bhagwat katha sikhe

नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ -प्रभु की माया कैसी है?

नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ -प्रभु की माया कैसी है?

 नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ -प्रभु की माया कैसी है?

नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ -प्रभु की माया कैसी है?

नारद ने एक दिन श्रीकृष्ण से पूछा-"प्रभो! आपकी माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ।"

अगले दिन श्रीकृष्ण नारद को लेकर एक रेगिस्तान की ओर चले। बहुत दूर जाने के बाद श्रीकृष्ण ने कहा-“नारद! मुझे बड़ी प्यास लगी है।


क्या कहीं से थोड़ा-सा जल ला सकते हो?" नारद बोले-“प्रभो! ठहरिए, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।" यह कहकर नारद चले गये।


कुछ दूर पर एक गाँव था। नारद जल की खोज में वहीं पहुँच गये। एक मकान पर पहुँचकर उन्होंने दरवाजा खटखटाया। द्वार खुला और एक अत्यन्त रूपवती कन्या उनके सामने आकर खड़ी हो गई।

 नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ -प्रभु की माया कैसी है?


उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गये। भगवान मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, वे प्यास से घबरा रहे होंगे, हो सकता है प्यासं के मारे उनके प्राण भी निकल जाएँ।


यह सब कुछ उन्हें याद नहीं रहा। सब कुछ भूलकर वे उस कन्या से बातचीत करने लगे। उस दिन वे अपने प्रभु के पास लौटे ही नहीं। दूसरे दिन फिर उस कन्या के घर आ पहुँचे और उससे बातचीत करने लगे।


धीरे-धीरे बातचीत ने प्रणय का रूप धारण कर लिया। नारद ने उस कन्या के पिता से इस बात की अनुमति मांगी कि नारद और उसकी कन्या विवाह-बंधन में बँध जाएँ। विवाह हो गया।


नवदंपती उसी गाँव में रहने लगे। धीरे-धीरे उनकी संतानें भी हुई। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गए। इस बीच नारद के ससुर की मृत्यु हो गई और नारद उनकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हो गए। पत्नी, पुत्र, भूमि, संपत्ति एवं गृह आदि के साथ नारद सुख-चैन से दिन बिताने लगे।


अचानक एक दिन उस गाँव में बाढ़ आई। रात के समय नदी दोनों किनारों को तोड़कर बहने लगी। सारा गाँव डूब गया। मकान गिरने लगे। मनुष्य और पशु बह-बहकर डूबने लगे। नदी की धार में सब कुछ बहने लगा।


नारद को भी भागना पड़ा। एक हाथ से उन्होंने पत्नी को पकड़ा, दूसरे हाथ से दो बच्चों को, और एक बालक को कन्धे पर बैठाकर वे उस भयंकर बाढ़ से बचने का प्रयत्न करने लगे।

 dharmik drishtant / दृष्टान्त महासागर


कुछ ही दूर जाने के बाद उन्हें लहरों का वेग अत्यन्त तीव्र प्रतीत होने लगा। कन्धे पर बैठे हुए शिशु की नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके।


वह गिरकर तरंगों में बह गया। उसकी रक्षा करने के प्रयास में एक और बालक, जिसका वे हाथ पकड़े हुए थे, छटकर डूब गया। निराशा और दख से नारद आर्तनाद करने लगे।


अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की सारी शक्ति लगाकर पकड़े हुए थे पर वह उनके हाथों से छट गई और वे स्वयं नदी के तट पर आ गिरे। मिट्टी में लोट-पोट हो बडे दीन स्वर में विलाप करने लगे।


इसी समय किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रखा और कहा-“वत्स! जल कहाँ है? तुम जल लेने गये थे न, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ।


तुम्हें गये आधा घंटा बीत चुका।" . “आधा घंटा!" नारद चिल्ला पड़े। उनके लिए तो बारह वर्ष बीत चके थे और आधे घंटे के भीतर ही ये सब दृश्य उनके मन में से होकर निकल गये।


श्रीकृष्ण के सामने नारद किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में थे। उन्होंने समझ लिया था कि श्रीकृष्ण की माया कैसी है!

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