धन्यानां गिरिकन्दरे /dhanyanam girikandre shloka niti
धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायता
मानन्दाश्रुजलं पिवन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः।
अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट
क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परं क्षीयते॥८८॥
वे धन्य हैं, जो पर्वतीय कन्दराओं में निवास करते हैं और परब्रह्म की ज्योति का ध्यान करते हैं, कि जिनके आनन्दजनित आँसुओं का पक्षीगण उनके ही गोद में बैठकर नि:शंक पान किया करते हैं, मनोरथ से बनी हुई बावली के तट के क्रीडोद्यान में विलास करने वाले हम लोगों की आयु तो यों ही क्षीण होती जा रही है।