dharmik kahani chahiye -साहस और क्षमा
एक बार सब दिशाओं में अपनी जीत का डंका बजाता हुआ सम्राट सिकदर भारत में आया। उसके गरु ने उसे भारतीय साधुओं से साक्षात्कार करने का आदेश दिया था।
सम्राट ने बहुत खोज की तो उसे एक साथ मिले। साधु की वृद्धावस्था थी और वे एक पत्थर पर बैठे हुए थे।
सम्राट साधु के पास बैठ गया। कुछ देर तक दोनों आपस में बातचीत करते रहे। बातचीत में ज्ञान-चर्चा होती रही। साधु के ज्ञानमय संभाषणों से सम्राट अत्यधिक प्रभावित हुआ।
उसने साधु से शिष्टाचार के साथ कहा-“महाराज! मैं आपको अपने साथ अपने देश ले चलना चाहता हूँ, सम्राट की इस इच्छा को साधु स्वीकार नहीं कर सके।
dharmik kahani chahiye -साहस और क्षमा
उन्होंने उत्तर में कहा- “मैं इस वन में बड़े आनन्द के साथ रह रहा हूँ। यहाँ से अन्यत्र जाने की मेरी इच्छा नहीं है।"
सम्राट बोला- “मैं पूरी पृथ्वी का सम्राट हूँ। मैं आपको असीम ऐश्वर्य तो दूंगा ही, आपके योग्य उच्च पद और मर्यादा भी प्रदान करूँगा।"
साधु ने निरीह स्वभाव से उत्तर दिया-“ऐश्वर्य, पद-मर्यादा आदि किसी वस्तु की मुझे कोई न आवश्यकता है और न इच्छा।"
सम्राट ने अनेक प्रलोभन दिये परन्तु साधु पर. उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ। उन्होंने सम्राट के साथ चलने से इनकार कर दिया। तब सम्राट ने अन्तिम वार किया-“यदि आप मेरे साथ नहीं चलेंगे तो मैं आपको मार डालूँगा।"
dharmik drishtant / दृष्टान्त महासागर
सम्राट की इस बात को सुनकर साधु हँस पड़े। हँसते-हँसते ही उन्होंने कहा-“सम्राट! यह तुमने बड़ी मूर्खतापूर्ण बात कह दी। अरे! तुम्हारी क्या हस्ती जो मुझे मारो।
सूर्य मुझे सुखा नहीं सकता, अग्नि मुझे जला नहीं सकती, तलवार मेरा संहार नहीं कर सकती क्योंकि मैं तो जन्मरहित, अविनाशी, नित्य विद्यमान, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आत्मा हूँ।"
सम्राट यह सुनकर साधु की ओर अपलक भौचक होकर देखता रह गया। उससे कोई उत्तर नहीं बन पड़ा।
1857 के गदर-काल की घटना है। एक मुसलमान सिपाही ने संन्यासी महात्मा को बुरी तरह घायल कर दिया। हिन्दू विद्रोहियों ने उस सिपाही को पकड़ लिया। पकड़कर महात्मा जी के पास ले आये। उन्होंने महात्मा जी से कहा-"आप आज्ञा दें तो इसकी खाल खींच लें।"
स्वामी जी ने उस मुसलमान सिपाही से कहा-“भाई! तुम्हीं वह हो, तुम्ही वह हो-तत्त्वमसि।" और यह कहते-कहते उन्होंने शरीर छोड़ दिया।
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