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dharmik kahani in hindi pdf -जय और पराजय

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dharmik kahani in hindi pdf -जय और पराजय

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आध्यात्मिक एवं पौराणिक ज्ञान जिनको है, वे लोग मुनि विश्वामित्र के नाम से अपरिचित नहीं होंगे। विश्वामित्र क्षत्रिय राजा थे।


बड़े क्रोधी और अभिमानी थे। पर प्रभु के परम भक्त थे। एक बार वह अपनी सेना के साथ रघुकुल के गुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पर जा पहुँचे। वशिष्ठ जी ने उनका हार्दिक स्वागत किया।


दोपहर का समय था। प्रायः यही समय भोजन का होता है। अतः विश्वामित्र एवं उनके सैनिकों के लिए भोजन की व्यवस्था आवश्यक थी।


वह हुई तो थोड़ी ही देर में भोजन तैयार हो गया एवं विश्वामित्र एवं उनके सैनिकों ने भोजन करके तृप्ति-लाभ किया क्योंकि भोजन अत्यन्त सुस्वादु था।

 dharmik kahani in hindi pdf -जय और पराजय


भोजन के बाद तृप्त हुए तो विश्वामित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे-इतने कम समय में इतना स्वादिष्ट भोजन तैयार कैसे हो गया! जब उनसे नहीं रहा गया तो वशिष्ठ से पूछा-“मुनिश्रेष्ठ!


इतना स्वादिष्ट और इतने कम समय में भोजन तैयार हो गया, इस पर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इसका रहस्य क्या है?"


वशिष्ठ जी ने मुस्कराहट के साथ विनम्र शब्दों में उत्तर दिया-“राजन! यह सब मेरी माँ समान नन्दिनी गौ की कृपा से सम्भव हो सका है।"


"तो मुनिवर! नन्दिनी को आप हमें दे दीजिए!" विश्वामित्र ने अपनी इच्छा को प्रकट कर दिया।

वशिष्ठ बोले- “नहीं राजन्! आपकी इस इच्छा की पूर्ति मैं नहीं कर सकता। आप और जो कुछ आज्ञा करें, मैं उसका पालन करूँगा।"


विश्वामित्रं अभिमानी और क्रोधी तो थे ही, आवेश के साथ बोले-"आप नहीं देंगे तो नन्दिनी को हम छीनकर ले जायेंगे।"


यह कहकर उन्होंने सैनिकों को आदेश दिया-“नन्दिनी को जबरन उठाकर ले चलो।"

विश्वामित्र की आज्ञा पाकर जैसे ही उनके सैनिक आगे बढ़े, आश्रम के शिष्यों ने उनका विरोध किया।

 dharmik drishtant / दृष्टान्त महासागर


दोनों ओर से संघर्ष होने लगा। बहत देर के संघर्ष के बाद विश्वामित्र के सैनिक हार मानकर पीछे हट गये। उनकी पराजय हुई तो उनका क्रोध और बढ़ गया। वे तप करने के लिए बैठ गये।


तप से भगवान शंकर प्रसन्न हुए तो एक दिन विश्वामित्र के सम्मख प्रकट हो गये। उन्होंने कहा-“राजन्! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो वर माँगना चाहो, माँग लो, मैं तुरन्त देने को तैयार हूँ।"


विश्वामित्र बोले-“प्रभो! मुझे शत्रु-विजय का वर प्रदान कर दीजिए।"

शंकर जी ने तथास्तु कहा और अन्तर्धान हो गये। बदले की भावना से विश्वामित्र ने एक बार फिर वशिष्ठ के आश्रम पर धावा बोल दिया लेकिन इस बार भी पराजय ही उनके हाथ लगी।


वे फिर तपस्या पर बैठ गये। वे बैठ गये तो बैठ गये। उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे। अन्त में ब्रह्मदेव उनके पास आये और बोले-“मुनिवर! आपकी तपस्या पूरी हुई।, बोलो, क्या चाहते हो?"


विश्वामित्र ने कहा- “प्रभु! मेरी इच्छा है कि मुझे वेदों का पूरा ज्ञान हो जाये और मुनि वशिष्ठ मुझे ब्रह्मर्षि कहकर पुकारें।"


उनका इतना कहना था कि वशिष्ठ जी वहाँ प्रकट हो गये और बोले- “मुनिवर! ब्रह्मर्षि तो आप हैं ही। आप जैसा महान ज्ञानी संसार में अन्य कोई नहीं है, आपकी पराजय नहीं हुई, पराजय तो आपके अंदर समाये हुए राजदंभ, क्रोध, अहंकार, अन्याय और बदले की भावना की हुई।"

यह सुनकर विश्वामित्र को बड़ा संकोच हआ

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