F दीना दीनमुखैः सदैव /dina deen mukha shloka vairagya - bhagwat kathanak
दीना दीनमुखैः सदैव /dina deen mukha shloka vairagya

bhagwat katha sikhe

दीना दीनमुखैः सदैव /dina deen mukha shloka vairagya

दीना दीनमुखैः सदैव /dina deen mukha shloka vairagya

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दीना दीनमुखैः सदैव /dina deen mukha shloka vairagya


दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्टजीर्णाम्बरा

क्रोशद्भिः क्षुधितैर्निरन्न विधुरा दृश्येत चेद्गेहिनी।

याञ्चाभङ्गभयेन गद्गदलसत्रुट्यद्विलीनाक्षरं

को देहीति वदेत्सवदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी जनः॥८॥

यदि खाने के लिए कलपते हुए और दीन मुख वाले बच्चों से कपड़ों द्वारा नोची-खसोटी गयी दुखिया अपनी गृहणी न देखी जाय तो कौन ऐसा स्वाभिमानी पुरुष होगा जो इस जले पेट के लिए याचना के व्यर्थ होने के भय से और अँधे हुए गले के कारण अस्पष्ट अक्षरों से 'मुझे दो' ऐसा कहने के लिए तैयार होगा अर्थात् इन सब अनर्थों की मूल स्त्री ही है।

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