निवृत्ता भोगेच्छा /nivritta bhogechha shloka vairagya
निवृत्ता भोगेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः
समाना स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः।
शनैर्यष्ट्योत्थानं घनतिमिररुद्धे च नयने
अहो दृष्ट: कायस्तदपि मरणापाय चकितः॥९॥
भोग की इच्छा नष्ट हो गई, पुरुषत्व का अभिमान समाप्त हो गया, समान वयवाले प्रिय मित्रगण स्वर्ग चले गये, स्वयं भी लकड़ी टेक-टेक कर चलने लगे, आँखों से कम सूझने लगा, फिर भी मरने का नाम सुनते ही मनुष्य भयभीत हो जाता है, आश्चर्य है !