जीर्णा एव मनोरथा: /jirna ava manoratha shloka vairagya
जीर्णा एव मनोरथा: स्वहृदये यातं जरा यौवनं
हन्तांगेषु गुणाश्च वन्थ्यफलतां याता गुणज्ञैर्विनां।
किं युक्तं सहसाभ्युपैति बलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी
हाज्ञातं मदनांतकोघ्रियुगलं मुक्त्वास्तिनान्योगतिः॥७८॥
मनोरथ हृदय के हृदय ही में जीर्ण-शीर्ण हो गये, जवानी वृद्धावस्था में परिणत हो गई, गुणज्ञों के न रहने से सारे गुण अंग में ही निष्फल हो गये, अब क्षमा न करने वाला बलवान् यम आ रहा है, इस अवस्था में क्या करना चाहिए? अब तो भगवान् शंकर के चरण युगल को छोड़कर और कोई दूसरी गति नहीं है।