F किंकन्दाः कन्दरेभ्यः /kinkandah kandrebhyah shloka vairagya - bhagwat kathanak
किंकन्दाः कन्दरेभ्यः /kinkandah kandrebhyah shloka vairagya

bhagwat katha sikhe

किंकन्दाः कन्दरेभ्यः /kinkandah kandrebhyah shloka vairagya

किंकन्दाः कन्दरेभ्यः /kinkandah kandrebhyah shloka vairagya

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किंकन्दाः कन्दरेभ्यः /kinkandah kandrebhyah shloka vairagya


किंकन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः

प्रध्वस्ता वा तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः

वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रसभमपगतश्रयाणां खलानां

दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयपवनवशानर्तितभूलतानि ॥५६॥

कन्दराओं में से क्षुधा को दूर करने वाले कन्दमूलादि पदार्थ और तृष्णा को दूर करने वाले पहाड़ी झरने क्या नष्ट हो गये? अथवा सरस फल और वल्कल से पूर्ण वृक्ष की शाखाएँ विनष्ट हो गईं कि अत्यन्त दुर्विनीत खलों के मुखों को याचक लोग देखा करते हैं, अर्थात् उनका आश्रय लेना पड़ता है जो कि बड़े दुःख से धन के गर्व से चंचल हो रहे हैं।

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