रम्यं हऱ्यातलं /ramyam havyatalam shloka vairagya
रम्यं हऱ्यातलं न किं वसयते श्रव्यं न गेयादिकं
किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकं प्रीयते।
किं तद्धान्तपतत्पतंगपवनव्यालोलदीपांकुर
च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गता॥५५॥
क्या सन्त महात्माओं के रहने के लिए बड़े-बड़े राजाप्रसाद न थे? क्या उनके सुनने के लिए अच्छे-अच्छे संगीत न थे? क्या प्राण के समान अत्यन्त प्रिय स्त्रियों का समागम सुख उनको अधिक प्रीतिकर न था कि उन्होंने इस संसार को गिरते पतंग की हवा से हिली हुई दीपक की छाया के समान चंचल जानकर निर्जन बन में चला जाना ही श्रेयस्कर समझा।