मातर्लक्ष्मि भजस्व /matarlakshmi bhajasva shloka vairagya
मातर्लक्ष्मि भजस्व कञ्चिदरं मत्कांक्षिणी मास्म
भूर्भोगेषु स्पृहयालवो नहि वय का नि:स्पृहाणीमसि।
सद्यः स्यूतंपलाशपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकतै
भिक्षासक्तु भिरेव सम्प्रति वयं वृत्ति समीहामहे ॥५३॥
हे मात लक्ष्मी! तू अब किसी और को भज, मेरी आशा छोड़ दो। अब विषय भोग में मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है, अब तो हम नि:स्पृही हो गये हैं, हमारे सामने तू तुच्छ सी है। क्योंकि अब हम पलास के हरे-हरे पत्तों के दोने में भिक्षा के सत्तू से ही अपना जीवन बिताना चाहते हैं।