मृत्पिण्डो जलरेखया /mrita pindo jalrekhaya shloka vairagya
मृत्पिण्डो जलरेखया वलयितः सर्वोऽप्ययं नन्वणुः
भोगीकृत्य स एव संयुगशतै राज्ञां गणैर्भुज्यते।
नो दधुर्ददतेऽथवा किमपि ते क्षुद्रा दरिद्रा भृशं
धिग्धिक्तान्पुरुषाधमान्धनकणान्वाञ्छन्ति तेभ्योऽपिये॥२५॥
यह सारी पृथ्वी जल की रेखा से घिरा हुआ मिट्टी का एक छोटा पिण्ड है, सैकड़ों राजा युद्धों द्वारा जहाँ-तहाँ उसके कुछ-कुछ अंशों पर अपना प्रभुत्व प्राप्त कर उस पर राज किया करते हैं। वे राजा लोग हमें कुछ देंगे या देते हैं इसके अतिरिक्त और उनसे आशा ही क्या की जा सकती है, वे तो स्वयं ही युद्धों के कष्ट से प्राप्त मृत्पिडरूप राज्य के भोगने से क्षुद्र हुए हैं और भूमण्डल के कुछ टुकड़ों पर ही स्वामित्व प्राप्त करने से दरिद्र भी हैं, इस तरह के क्षुद्र और दरिद्र राजाओं से जो यत्किञ्चित् धन की इच्छा करते हैं उन अधम पुरुषों को धिक्कार है।