नाभ्यस्ता भुविवादि /nabhysta bhuvivadi shloka vairagya
नाभ्यस्ता भुविवादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता
खड्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः।
कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये
तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत्॥७६॥
न तो मैंने विरोधियों का मुख मर्दन करने वाली विद्या ही पढ़ी, न तो खड्गाग्र से हाथियों के मुखपीठ को चीरकर ही यश को स्वर्ग तक पहुँचाया और न तो चन्द्रोदय के समय कान्ता के कमल अधर पल्लव के रस का ही पान किया, इस तरह मेरा तारुण्य सूने घर के दीपक की तरह व्यर्थ ही हुआ।