नीति श्लोक अर्थ सहित
niti shlok hindi mein
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।।३।।
भाषा- बुद्धिमान मनुष्य अपने को बुढ़ापा और मृत्यु से रहित समझकर विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु मानों सिर पर सवार है-ऐसा समझकर धर्म का पालन करता रहे।।३।।
पात्रात्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मम् ततः सुखम् ।।४।।
भाषा- विद्या से विनय, विनय से योग्यता, योग्यता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्त होता है।।४।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः । ७ ।।
भाषा- अनेक संशयों को मिटाने वाला, भूत एवं भविष्य को तथा अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष के समान दिखानेवाला, शास्त्ररूपी दिव्यचक्षु जिसके पास नहीं है, वह वास्तव में अन्धा है।।७।
यौवनं धनसम्पतिः प्रभुत्वमविवेकिता।
- एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ||८||
भाषा - जवानी, द्रव्यवैभव, स्वामित्व और विचारशून्यता, इन चारों में स्वतन्त्र एक-एक भी अनर्थ का कारण हो जाता है, जहां चारों एक साथ हो वहां की बात ही क्या है? अर्थात वहाँ तो अनर्थ होगा ही।।८ ||
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान् न धार्मिकः ।
कथञ्चित्स्वोदरभराः किन्न शूकरशावकाः ।।६।।
भाषा- उस पुत्र से क्या लाभ? जो न विद्वान हो न धार्मिक? क्या सूअर के बच्चे किसी तरह अपना पेट नहीं भरते? अर्थात भरते ही हैं।।
अजातमृतमूर्खाणां वरमाद्यौ न चान्तिमः ।
सकृद् दुःखकरावाद्यावन्तिमस्तु पदे पदे ।।१०।।
भाषा - उत्पन्न ही न हुआ अथवा उत्पन्न होकर उसी समय मर गया और मूर्ख इन तीनों में से उत्पन्न ही न होना और होकर मर जाना ये दोनों प्रकार के पुत्र अच्छे हैं, तीसरा (मूर्ख) तो अच्छा नहीं, क्योंकि पहले कहे हुये दोनों केवल एक बार दुःख देते हैं, मूर्ख तो पदे-पदे हर समय दुःख देता रहता है।।१०।।
देशवंशजनैकोऽपि कायवाकचेतसां चयैः ।
येन नोपकत: पंसा तस्य जन्म निरर्थकम् ।।
भाषा - जिस किसी पुरुष ने शरीर, वाणी और मन इन तीनों द्वारा ङ्केअथवा इसमें से किसी एक के द्वारा देश का अथवा अपने वंश का एक भी उपकार यदि न किया तो ऐसे अनुपकारी पुरूष का जन्म लेना ही व्यर्थ है।।
दाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं वशः।
विद्यायामर्थलाभे च मातुरूच्चार एव सः । ।
भाषा - जिस पुरुष की कीर्ति दान देने में, तपस्या में, वीरता में विद्योपार्जन में और धनोपार्जन में नहीं फैली वह पुरुष अपनी माता की केवल विष्ठा के ही समान होता है ।।
पुण्यतीर्थे कृतं येन तपः क्वाप्यतिदुष्करम् ।
तस्य पुत्रो भवेद्वश्यः समृद्धो धार्मिकः सुधीः ।।
भाषा- जिस पुरुष ने किसी पुण्यतीर्थ में जाकर अतिकठिन तपस्या की हो तो उसके प्रभाव से उसका पुत्र आज्ञाकारी, धनधान्यादियुक्त, धर्मात्मा एवं विद्वान् होता है।।
अर्थागामो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या, षड्जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।।
भाषा - और – हे राजन् । नित्य धनागम, स्वस्थता प्रेम करनेवाली सत्य बोलने वाली स्त्री, आज्ञापालक पुत्र तथा धनोपार्जन करने वाली विद्या ये मनुष्य लोक के छ: सुख है ।।
यस्य कस्य प्रसूतोऽपि गुणवान्पूज्यते नरः।
धनुर्वशविशुद्धोऽपि निर्गुणः किं करिष्यति ।।
भाषा- किसी भी वंश में उत्पन्न मनुष्य दे गणी है तो समाज में उसका सम्मान होता है जैसे श्रेष्ठ बांस से बने हुये भी गुण (प्रत्यंचा) रहित धनुष से क्या उपयोग लिया जा सकता है? अर्थात कोई नहीं।।
आहारनिद्राभयसन्ततित्वं सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं हि तेषामधिकं विशिष्टं ज्ञानेन हीना: पशुभिः समानाः।।
भाषा - मनुष्य में और पशुओं में आहार निद्रा, भय और सन्ततित्व ये चारों गुण समान होते हैं किन्तु एक ज्ञान ही ऐसा गुण है जो मनुष्य में विशेष रूप से होता है इसलिये ज्ञान से रहित मनुष्य पशु के समान हुआ करते हैं। ।
धर्मार्थकाममोक्षणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ।।
भाषा - धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में जिसमें एक भी नहीं होता उसका जन्म बकरी के गले में लटकनेवाले स्तन के समान निरर्थक होता है।
आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।
पंचैतान्यपि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।।१८।
भाषा- आयु, कर्म, धन, विद्या मृत्यु ये पांचो प्राणी के गर्भ में रहते हुये ही ब्रह्मा के द्वारा निर्धारित किये जाते हैं।
दैवे पुरुषकारे चा स्थितमस्य बलाबलम्।
दैवं पुरुषकारेण दुर्बलं ह्युपहन्यते ।।
भाषा - भाग्य और पुरुषार्थ में इसका बलाबल विद्यामान है पुरूषकार के द्वारा दुर्बल भाग्य पराजित होता है ।।