पाणिः पात्रं पवित्रं /panih patram pavitram shloka vairagya
पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमनं
विस्तीर्ण वस्त्रमाशादशक्चपलं तल्पमस्वल्पमुर्वी।
येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणतस्वात्मसंतोषिणस्ते
धन्या संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराकर्मनिर्मूलयन्ति॥४७॥
वे धन्य हैं जिनका हाथ ही पवित्र है, भ्रमण द्वारा प्राप्त भिक्षा ही अक्षय भोजन है, लम्बी चौड़ी दशों दिशाएँ ही जिनका वस्त्र है, पृथ्वी ही जिनकी बड़ी शय्या है, अन्तःकरण के अनासक्तियोग से जो सदा सन्तुष्ट रहा करते हैं और दीनता के भावों को त्यागकर जन्म परम्परा से प्राप्त कर्मों का नाश करते हैं।